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देव और नारकी- देव और नारकी वैक्रिय शरीर वाले होते हैं। प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तकवैक्रिय, वैक्रियमिश्र और तैजस कार्माण शरीर वाले होते हैं। मनुष्य और तिर्यञ्च- मनुष्य और तिर्यञ्च- वैक्रिय और औदारिक शरीर वाले होते हैं। मनुष्य मिथ्यादृष्टि से सयोग केवली गुणस्थान तक औदारिक व वैक्रिय शरीर वाले होते हैं। तिर्यञ्चमिथ्यादृष्टि से देशविरत गुणस्थान तक औदारिक शरीर वाले होते हैं। मनुष्यों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान एवं उससे आगे की अवस्था में वैक्रिय काययोग संभव नहीं है। सभी प्रकार के अपर्याप्त जीव- मिश्र शरीर वाले होते हैं। मनुष्यों में अप्रमत्तसंयत गणस्थान एवं उससे आगे की अवस्था में वैक्रिय काययोग संभव नहीं । प्रमत्तसंयत 14 पूर्वो के ज्ञाता मुनियों में आहारक काययोग की संभावना रहती है अपर्याप्त अवस्था में मिश्र गुणस्थान नहीं होता- वैक्रिय काययोग संभव है। मिश्र गुणस्थान में मृत्यु योग न होने से तैजस कार्माण शरीर नहीं होता यह काययोग मिथ्यादृष्टि, सास्वादन, अविरत सम्यग्दृष्टि तथा केवली समुद्घात करते समय सयोग केवली में संभव है। (5) वेद मार्गणानेरइया य नपुंसा तिरिक्खमणुया तिवेयया हुंति।
देवा य इत्थिपुरिसा गेविज्जाई पुरिसवेया ।।59।। जीवसमास जैन दर्शन में तीन वेद का अर्थ- स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक वेद एवं तत्सम्बन्धी कामवासना से लिया गया है। स्त्रीवेद- अर्थात् जैसे पित्त से मयदुर पदार्थ की रुचि उसी प्रकार जिस कर्म के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ रमने की इच्छा होती है। पुरुषवेद- अर्थात् जैसे कफ जैसे खट्टे पदार्थों में रुचि होती है उसी प्रकार पुरुष को स्त्री के साथ रमने की इच्छा होती है। नपुंसकवेद- अर्थात् जैसे पित्त कफ के प्रभाव से मद्य के प्रति रुचि होती है उसी प्रकार नपुसंक को स्त्री-पुरुष दोनों के साथ रमने की इच्छा होती है। (संदर्भ-अभिदान राजेन्द्रकोश भाग-6 पृष्ठ 1427, बृहदकल्प, उद्देशक 4 , कर्मग्रंथ 1/22) सम्मूःन जीव विकलत्रय नपुंसक जो ढाई द्वीप में ही होते हैं नपुंसक मनुष्य गति में भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। यदि वह द्रव्य से पुरुष व भाव से नपुसंक हो तो मोक्ष प्राप्त कर सकता है। उत्तम संहनन का अभाव होने से स्त्री मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती। गुणस्थान एवं वेद मार्गणा के पारस्परिक सम्बन्धों को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है - गति के क्रम में - नारकी जीवों के - नपुंसक वेद (लिंग) देव पर्याय में
- स्त्री एवं पुरुष वेद मनुष्य व तिर्यञ्चों में - तीनों ही वेद गुणस्थान की दृष्टि से- दिगम्बर परम्परा में सातवें गुणस्थान से आगे मात्र पुरुष ही आरोहण कर सकते हैं। (इस बहु प्रचलित विधान का खण्डन दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ उमास्वामि कृत तत्त्वार्थसूत्र अध्याय दस के नवें सूत्र से होता है जिसमें कहा गया है कि अलिंग से ही सिद्ध होते हैं या द्रव्य पुल्लिंग से ही सिद्ध होते हैं तथा भाव लिंग की अपेक्षा से तीनों लिंगों
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