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14. अयोग केवली गणस्थान
जब जीव घातिया कर्मों के क्षयोपरान्त शारीरिक उपाधियों की समाप्ति निकट देखता है तो वह शेष कर्मों को समाप्त करने हेतु यदि आवश्यक हो तो प्रथम केवली समुद्-घात करता है और तत्पश्चात सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्ल ध्यान के द्वारा मानसिक, वाचिक व कायिक व्यापारों का निरोध कर लेता है तथा समुछिन्ननिरुपाधि क्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान द्वारा निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके शरीर त्याग कर निरुपाधि सिद्धि या मुक्ति प्राप्त कर लेता है। केवली के शुभ ध्यान होता है। जब पाँच ह्रस्वाक्षर काल प्रमाण आयुष्य शेष रहता है तब केवली योग निरोध प्रक्रिया करके योग रहित होता है। यह योग रहित अवस्था ही अयोगकेवली नामक 14वां गुणस्थान है यहाँ ये आत्मा सिद्धशिला के लोकाग्र में आरूढ़ हो जाती है।यह अष्टधक कर्म अवस्था है।
सिद्ध जीवात्मा
भाषक कर्म सहित (अयोगकेवली गुणस्थान)
___ अभाषक कर्म रहित (कोई
गुणस्थान इनके नहीं होता)
इस गुणस्थान में रहने की कालावधि भी अतिअल्प है जितनी कि पाँच हस्व स्वरों अ, इ, उ,ऋ. के उच्चारण में लगता है। इस अवस्था में जीव के समस्त कायिक योगों का निरोध हो जाता है। यह चरमादर्श उपलब्धि है, यह संन्यास है। इसके बाद की स्थिति को विचारकों ने शिवपद, मोक्ष, निर्वाण एवं निर्गुण ब्रह्म कहा है। जिन्होंने(मुनि) ध्याता ध्यान और ध्येय की एकता सिद्ध करदी है उनको लेश भी दुख नहीं होता। आयुष्य शेष रहने पर केवली जीव समदघात करता है। इसका विवरण इस प्रकार है। समुदघात- जन्म और मृत्यु जीवन के दो छोर हैं। इसमें सामान्तः जन्म के समय उत्सव तथा मृत्यु के समय शोक एवं दुःख प्रकट करने की परम्परा है किन्तु जैन धर्म ने आध्यात्म के क्षेत्र में मृत्यु को महोत्सव का स्वरूप प्रदान करने की जो प्रक्रिया प्रस्तुत की उस अवधारणा को सल्लेखना ,संन्यास मरण, समाधि मरण, वीर मरण, पंडित मरण, संथारा आदि नामों से अभिहित किया जाता है मृत्यु जीवन की अवश्यंभावी घटना है जिसका कोई अपवाद नहीं है किन्तु जैन धर्म ने जीवन जीनेकी कला जैसा आदर्श प्रस्तुत किया है। कोई भी मनुष्य अपने पुरुषार्थ द्वारा जीवन और मृत्यु इन दोनों को सार्थक बना सकता है। जैन साधना पद्धति में जो संयममय जीवन जीते हैं, वे इसके पूर्ण अधिकारी बनते है क्योंकि सल्लेखना एक साधारण नहीं, अपितु असाधारण साधना है। साधक अपने जीवन में सर्व प्रथम यह देखता है कि हमारे शरीर और आत्मा इन दोनों में से कौन नश्वर और कौन शाश्वत है , मेरा भला किसमें निहित है ऐसी स्थिति में नश्वर शरीर की अपेक्षा साधक शाश्वत आत्मा
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