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गणस्थान सिद्धान्त पर समीक्षात्मक विचार पहले से सातवें गुणस्थान तक नियति की प्रधानता प्रतीत होती है जबकि आठवें से चौदह गुणस्थान तक की सिद्धि पुरुषार्थ प्रधान्य है। प्रथम सात गुणस्थान श्रेणियों में आध्यात्मिक विकास में संयोग की प्रधानता रहती है क्योंकि इसमें आत्माम का स्वयं का प्रयास अतिअल्प होता है। अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा आत्माम अंतिम सात गुणस्थानों में कर्मों पर शासन करने लगती है जो वास्तव में आत्म का अनात्म पर अधिकार है। दृष्टान्त से स्पष्टता- कल्पना करें कि किसी उपनिवेश को विदेशी जाति ने गुलाम बना लिया है। तो यह प्रथम गुणस्थान की भाँति है. पराधीनता में ही शासक-वर्ग द्वारा प्रदत्त सुविधा का लाभ उटाकर जनता में स्वतंत्रता की चेतना का उदय होना चतुर्थ गुणस्थान है। बाद में जनता द्वारा कुछ अधिकारों की माँग का प्रस्तुत किया जाना और प्रयासों तथा परिस्थिति के आधार पर कुछ माँगों की स्वीकृति पाँचवां गुणस्थान है। इसकी सफलता से प्रेरित जनता औपनिवेशक स्वराज्य की प्राप्ति का प्रयास करती है और अवुकूल संयोग होने पर यह माँग स्वीकृत भी हो जाती है यह छठा गुणस्थान है। औपनिवेशक स्वराज्य की इस अवस्था में जनता पूर्ण स्वराज्य का प्रयास करती है, सजग होकर अपनी शक्ति संचय करती है यह सातवां गुणस्थान है। आगे वह पूर्ण स्वतंत्रता का उद्घोष करती हुई उन सब विदेशियों से संघर्ष आरम्भ कर देती है। संघर्ष की आरम्भिक स्थिति में यद्यपि शक्ति सीमित और शत्रु विकरील होता है फिर भी अपने साहस और शौर्य से वह उसे परास्त कर देती है यह गुणस्थान है। नवां गुणस्थान वैसा ही है जैसा युद्ध के बाद आन्तरिक व्यवस्था को सुधारना और छिपे हुए शत्रुओं का उन्मूलन करना। इसके बाद की अवस्थाओं में यदि अति अल्पक्षतिकारक घटकों को समाप्त कर घातिया शत्रुओं का विनाश कर दिया जाय या उन्हें शमित कर दिया जाय तो 10 से 12वें गुणस्थान तक की अवस्था स्पष्ट हो जाती है। तत्पश्चात रखी जाती है स्व विकास की सुदृढ़ बुनियाद जो 13वां गुणस्थान है एवं केवल या परमानन्द का द्योतक है। अब बस अघातिया कर्मों के कालातीत होते ही इस बुनियाद पर मोक्ष महलरूपी भव्य-बुलन्द इमारत खड़ी होने वाली है जिसमें हमेशा के लिए अविनाशी अक्षय आत्मा अवस्थित होगा। यह 14वें अंतिम गुणस्थान की स्थिति है।