Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

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Page 43
________________ 8 6- दायक दोष- मलिन अशुद्ध तन वाली, अशक्त तथा बाल पोषण में रत महिला से आहार ग्रहण करना। उन्मिश्र दोष- सचित्त से मिला आहार लेना। अपरिणत दोष- अधपका आहार लेना। 9- लिप्त दोष- गेरू, खडिया आदि अप्रासुक द्रव्य से लिप्त वर्तन में रखा आहार लेना। 10- परिव्ययजन दोष- पात्र में आहार को छोड़कर अन्य आहार ग्रहण करना। 11- संयोजन दोष- भोजन में ठंडा-गर्म का मिश्रण युक्त आहार लेना। 12- अप्रमाण दोष- प्रमाण से अधिक भोजन लेना। 13- अंगार दोष- गरिष्ठ या गृद्धिता युक्त भोजन लेना। 14- धुम दोष- प्रति विरुद्ध या ग्लानियुक्त भोजन करना। इसके अलावा मूलाचार के पिण्डशुद्द अधिकार की गाथा 425 - 500 में वर्णित भोजन अन्तरायोजनित दोष शामिल हैं। मूलाचार गाथा में वर्णित मल दोषणहरोभ जन्तु अटठी कणकुणय पूयि चम्मक हिरमंसाणि। बीय फलकंद मूलछिण्णाणिमलाचउददसा होति।।428।। नख, रोम(बाल) प्राणरहित शरीर हाड़, गेंहूं आदि के कण, चावल के कण, खराब लोही(राघ), चाम, लोही, माँस तथा अंकुर होने योग्य गेंहूं आदि आम आदि फल, कंद, मूल ये चौदह मल हैं इन्हें देखकर आहार त्याग कर देना चाहिए। इस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। यदि आत्मा अन्तर्मुहूर्त उपरान्त भी प्रमाणाधीन रहती है तो वह अपने गुणस्थान से नीचे गिरती है। प्रमाद भाव त्याग की स्थिति में सात अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त करती है। प्रमाद सहित होने पर आत्मा निरालंबन धर्मध्यान नहीं कर सकती | ध्यान = चित्त की एकाग्रता। जब तक अप्रमत्त संयत नामक सातवें गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती तब तक धर्म ध्यान संभव नहीं। ऐसे व्रती को तब तक निम्न षट आवश्यक क्रियायें करते रहना चाहिए। ये षट आवश्क क्रियाएं ग्रहस्थ व साधु दोनों के अशुभ कर्म की निर्जरा में सहायक हैं। सामायिक- कम से कम 48 मिनट एक ग्रहस्थ तथा मुनि जीवन पर्यन्त सामायिक में होते हैं। चौबीस तीर्थंकरों की वंदना, सदगुरुओं का वंदन, पंचविधि प्रतिक्रमण- राई प्रतिक्रमण- रात्रि सम्बन्धी अतिचारों की शुद्धि के लिए, देवली- दिवस सम्बन्धी अतिचारों की शुद्धि के लिए, पक्खी- पक्ष के अन्तर्गत लगे अतिचारों की शुद्धि के लिए, चउमासी- चारमास दरम्यान व्रत में लगे अतिचारों की शुद्धि हेतु तथा संवतसरी- वर्ष दरम्यान व्रत में लगे अतिचारों की शुद्धि हेतु आवश्यक माने गये हैं। 7. अप्रमत्तसंयत गुणस्थानइस गणस्थान में वे सजग साधक आते हैं जो देह में रहते हए भी देहातीत भाव से युक्त होते हैं। इस गुणस्थान में साधक का निवास अतिअल्प होता है अर्थात् कोई भी साधक 48 मिनट से अधिक इस स्थिति से में नहीं रह पाता क्योंकि दैहिक उपाधियां उसे विचलित कर 43

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