________________
11- उदिदष्ट त्याग प्रतिमा - रत्नकांड श्रावकाचार के अनुसार ग्यारहवाँव्रती श्रावक घर त्याग कर वन में मुनियों के पास चला जाये और वहाँ गुरू के सामने व्रत धारण कर भिक्षा भोज करके तपस्या करे और खंड वस्त्र अपने पास रखे, उसे उदिष्ट त्यागी श्रावक कहा गया है। ग्रहतो मुनिवन मित्वा गुरुपवण्ठे व्रतानि परिग्रहा ।
भैक्ष्या सनस्त पस्यन्तुत्कृष्टाश्चेल खण्धरः ।। रत्न.247।।
जिनागम में ग्यारह प्रतिमाओं में से पहले की चार प्रतिमायें जघन्य मानी गयीं हैं इसके ऊपर की तीन अर्थात् सातवीं, आठवीं, नौवीं प्रतिमायें मध्यम और शेष दसवीं, ग्यारहवीं प्रतिमायें उत्तरोत्तर व्रतों के पालन और त्याग तपस्या की तारतम्यता के क्रम से सर्वोत्तम मानी गयीं हैं।
यदि साधक प्रमाद के वशीभूत नहीं होता तो आगे के गुणस्थानों में बढ़ जाता है इसके विपरीत प्रमादसहित होने पर वह इन नियन्त्रक क्षमताओं का समुचित उपयोग न कर पाने से पतनोन्मुख भी हो सकता है। वह प्रायश्चित आदि के द्वारा इन कषायादि परिणामों का विशुद्धीकरण करके अपनी इस स्थिति को बनाए भी रख सकता है और आगे भी ले जा सकता है। संजदा संजदा- जो संज्ञा होते हुए भी असंयत है।
जो तस वताउ विरओ अविरओ तह य थावर वहाओ ।
एवक सम्मयाम्मि जीवो विरयविरओ जिणोक्कतामई।।112।।ध.
जो जीव जिन देव में अद्वितीय श्रद्धान रखता हुआ एक ही समय में त्रस जीवों की हिंसा से विरत (रहित) तथा स्थावर जीवों की हिसा से अविरत है तथा अल्प समय में शेष असंयम का धारी है वह संयतासंयत गुणस्थान वाला कहा जाता है। अर्थात्- कोई पंचम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज पहले जितना शुद्धात्मा का आश्रय ले रहे थे उससे भी अधिक विशेष अधिक रीति से निज शुद्धात्मा का आश्रय लेकर अर्थात् शुद्धोपयोग द्वारा ही अप्रमत्तविरत गुणस्थान में गमन करने से भावलिंगी मुनि हो जाते हैं। भावलिंगी पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक हो अथवा पंचम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी दो, पाँचवे से- चौथे गुणस्थान में अथवा तीसरे गुणस्थान में अथवा औपशमिक सम्यक्त्व साथ हो तो दुसरे गुणस्थान में अथवा परिणामों में विशेष अधःपतन करके सीधे मिथ्यात्व गुणस्थान में भी गमन कर सकते हैं। 1. प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती भावलिंगी मुनिराज सीधे देशविरत में आ सकते हैं।
2. चौथे गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज अथवा द्रव्यलिंगी श्रावक देशविरत गुणस्थान में आ सकते हैं।
3. प्रथम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज अथवा द्रव्यलिंली श्रावक भी सीधे इस देशविरत गुणस्थान में आसकते हैं। इसे श्रावकपना कहा जा सकता है। इसमें जीव अपने आप को मुक्ति मार्ग के अनुकूल बनाने हेतु साधना में बाधक पाप प्रवृत्ति का आंशिक त्याग कर देता है। इस गुणस्थान की उत्कृष्ट अवधि “देशअना” अर्थात् 8वर्ष न्यून-कम पूर्वकोड़ वर्ष की होती है।
“षडानली सास्वादनं, समधिकत्रयस्त्रिंशत सागराणिचतुर्थं ।
38