Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

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Page 36
________________ अवस्था ही देश विरति है। इस गुणस्थान में साधक गृहस्थाश्रम में ही रहता है किन्तु वह क्रोधादि कषायों व हिंसादि प्रवृत्तिओं या भावनाओं पर थोड़ा - बहुत नियन्त्रण करने की क्षमता विकसित कर लेता है जो उसे चतुर्थ गुणस्थान में प्राप्त नहीं थी। पंचम गुणस्थान की प्राप्ति हेतु अप्रत्याख्यानी(अनियन्त्रणीय) कषायों का उपशान्त होना आवश्यक है इनकी अनुपस्थिति (अन्यथा) में जीव सम्यक्त्व नैतिक आचरण पथ पर बढ़ ही नहीं सकता इसलिए गस्थान में साधक में इन कषायादि वासनाओं पर आंशिक नियन्त्रण करने की क्षमता का विकास आवश्यक समझा गया है। संयत और असंयत इन दोनों भावों के मिश्रण से जो गुणस्थान होता है उसे संयतासंयत गुणस्थान कहते हैं। संजद संजदा।।13।। संयताश्च ते असंयताश्च संयतासंयत। (ध.1/1/13) | गौम्मटसार जीवकांड में कहा गया है कि इस गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहने से पूर्ण संयम तो नहीं रहता, किन्तु यहाँ इतनी विशेषता होती है कि अप्रत्याख्यानावरण का उदय न होने से एकदेश व्रत होते हैं। णच्चक्खाण दयादो, संजम भावेण होदि णवरि तु। थोव वादो होदि तदो, देस वदो होदि पंचमओ।।601| गो. जी. जो तस वहाउ विरदो अविरदओ तहय थावर वहादो। एक समयम्हि जीवो विरदा विरदो विणेक्कमई।। (गो.गा.31.ध./1/1/13 गा.112) जो जीव जिनेन्द्र देव में अदवितीय श्रद्धा को रखता हआ त्रस जीवों की हिंसा में विरत और उसी समय में स्थावर जीवों की हिंसा से अविरत होता है तथा "च " शब्द से बिना प्रयोजन स्थावर जीवों का भी वध नहीं करता उस जीव को विरता विरत कहते है। जो पाँच अणुव्रत और चार शिक्षाव्रतों से संयुक्त होते हुए असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा करते हैं। ऐसे विशिष्ट सम्यग्दृष्टि जीवों को संयमा संयमी कहा गया है। जो श्रावक आनन्दित होता हुआ जीवन के अन्त में यानी मृत्यु समय में शरीर भोजन और मन,वचन, काय के समस्त व्यापारों का त्याग कर कषायों को कश करता हआ पवित्र ध्यान के दवारा आत्म शुद्धि साधना करता है उसे साधक श्रावक कहा जाता है। देहा हारी हित त्यागात, ध्यानशुद्ध आत्मशोधनमा यो जीवतान्ते सम्प्रीतः सधयत्येषसाधकः||सा. ध. अ.8 श्लोक 1|| देशव्रती श्रावक तीन प्रकार के होते हैं- पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक। 1. पाक्षिक श्रावक - पाक्षिक श्रावक सर्वथा अव्रती नहीं है। पक्षचर्या और साधक चर्या के दवारा हिंसा का निवारण किया जाता है। इस संदर्भ में “पक्ष " का शाब्दिक अर्थ है सदा काल अहिंसा के पक्ष में रहना। उत्कृष्ट श्रावक 11 प्रतिमाधारी होता है। षट्आवश्यक पाक्षिक श्रावक की दिनचर्या के आवश्यक अंग है। पाक्षिक श्रावक किसी व्रत का पालन नहीं करता इसलिए सामान्य अर्थों में वह अव्रती है वह तो केवल व्रत धारण करने का "पक्ष” रखता है। सद 36

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