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विजय प्राप्त करने सफल हो जाती है तो दृढ़ता से आगे बढ़ जाती है। वस्तुतः यह गुणस्थान एक विश्रामस्थली है जहाँ जीव अपने आंशिक अशुभ परिणामों पर नियन्त्रण हेतु सम्यक् दृढ़तारूपी शक्ति (इनके निरोध का साहस) का प्रदर्शन करता है। इस गुणस्थान में रहते हुए साधक में अशुभ भावों के प्रति अधिकांश विरति आ जाती है। श्रमण साधक छठवें-सातवें गुणस्थान के मध्य झूलतासा रहता है। ऐसा देह भाव के अस्तित्व के कारण होता है जहाँ अशुभ परिणामों अथवा आन्तरिक कषायादिक बीजपरूप आन्तरिक परिणामों पर विजय प्राप्त करते हुए वह सातवें गुणस्थान की ओर बढ़ता है। यहाँ देहभाव का आशय है- प्रमादरूपी अवरोध के चलते पतनोन्मुखता का आना इसी भाव के उत्पन्न होने से जीव पुनः छठे गुणस्थान में लौट आता है। इस गुणस्थान में मुर्छा या आसक्ति का अभाव पाया जाता है। इसमें साधक को पंद्रह कर्म प्रकृतियों का क्षय, उपशम व क्षयोपशम करना होता है यथाअनन्तानुबन्धी (स्थाई प्रबलतम) क्रोधादि 4 कषाय, अप्रत्याख्यानी (अस्थाई किन्तु अनियन्त्रणीय) क्रोधादि 4 कषाय, प्रत्याख्यानी (नियन्त्रणीय) क्रोधादि 4 कषाय तथा मिथ्यात्व मोह, मिश्र मोह व सम्यक्त्व मोह(3)। कषायचतुष्क और चारित्र मोहनीय को शिथिल करके जीव यहाँ पहुँचता है। इसमें जीव पाप कार्यों से सर्व विरति को स्वीकारता है, पुदगल पदार्थो में आसक्ति को तजने के लिए विवेक पूर्वक वर्तता है तथा बाधक कर्मों के क्षय हेतु निरन्तर पुरुषार्थ करता है। फिर भी प्रमाद वश रहता है तथा कषायों के तीव्रोदय से प्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त होता है। इस गुणस्थान की स्थिति एक करोड़ पूर्व वर्ष मे आठ वर्ष न्यून होती है। 15 कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम (दर्शनमोहत्रिक, अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी व प्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क) करके जीव छठे गुणस्थान में आता है। छठवें गुणस्थानवर्ती मुनियों के पालन करने योग्य 28 मूलगुणः पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियविजय, षटआवश्यक क्रियाएं, नग्नता, भूमिशयन, स्नानाभाव, दन्तधोवन अभाव, केशलोंच, खड़े होकर कर पात्र में एक बार भोजन। मनिराज के पालन योग्य दस व्यवहारजैन दर्शन में इन्हें दस लक्षण धर्म(तत्त्वर्थसूत्र अध्याय-9) में कहा भी है यथा- उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य। निंदा, प्रशंसा, शत्रुतामित्रता, राग-द्वेष से दूर हैं। मूलाचार गाथा चरित्र पालन की सामग्री इस प्रकार बतलाई गई
मिक्खं चर वस रण्णेपोवं, जेमेहिमा बहुजंव।।
दुखं सह जिण विरदा, मत्तिं भावेहि सुठठवेरग्ग।।895।। हे मुनि। सम्यक चारित्र पालना है तो भिक्षा भोजन कर, वन में ही रह, थोड़ा आहार कर, बहुत मत बोल, दुख को सहन कर, निद्रा को जीत, मैत्री भाव का चितवन कर तथा अच्छी तरह वैराग्य परिणाम रख। जो महाव्रती सम्पूर्ण मूलगुणों और शील के भेदों से युक्त होता हुआ भी व्यक्त एवं अव्यक्त दोनों प्रकार के प्रमादों को करता है, वह प्रमत्तसंयत गुणस्थान
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