Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

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Page 33
________________ 4. अविरत सम्यक दृष्टि गणस्थानवास्तव में यह जीव की आध्यात्मिक विकास यात्रा का प्रथम चरण है जिसमें आत्मा को नैतिक आचरण का बोध होता है। आत्मा में सत्य -असत्य को जानने-पहचानने की क्षमता या योग्यता का प्रदुर्भाव होता है. इस गुणस्थान में जीव का दृष्टिकोण तो सम्यक् हो जाता है किन्तु आचरण सम्यक नहीं हो पाता। अर्थात् वह अभी आरम्भिक स्थिति में ही होता है। इस गुणस्थान में साधक की वासनाओं पर संयम लाने की क्षमता क्षीण होती है किन्तु वह इसमें रहते हुए सतत निम्न सात कर्म प्रकृतियों के क्षय(नष्ट करना), उपशम(दबाना),एवं क्षयोपशम(क्षय और उपशम के मध्य की स्थिति जो उपशम से अधिक दृढ़ता का प्रकटीकरण करती है किन्तु क्षय की पूरिणता से अभी निम्न स्थिति में है) में लगा रहता है ये सात कर्म प्रकृतियां हैं1. अनन्तानबन्धी (स्थाई तीव्रतम) क्रोध, 2. अनन्तानबन्धी मान 3. अनन्तानबन्धी माया (कपट) 4. अनन्तानुबन्धी लोभ 5. मिथ्यात्व मोह 6. मिश्र मोह और 7. सम्यक्त्व मोह। जब आत्मा इन सात कर्म प्रकृतियों का सम्पूर्ण क्षय करके सम्यक् क्षायिक को प्राप्त कर लेता है फिर वह इस गुणस्थान से वापस नहीं गिरता | उसका सम्यक्त्व स्थाई हो जाता है किन्तु यह चतुर्थ गुणस्थान के उत्तरार्ध की स्थिति है। जब वह इन सात कर्मप्रकृतियों का क्षय न करके मात्र दमन करता है अर्थात् वासनाओं को दबाने में यत्नरत रहता है तब इस दृष्टिकोण में अस्थायित्व का अहसास रहता है इसे ही औपशमिक सम्यक्त्व कहा जाता है। इस स्थिति में संयोगो व दृढ़ता की प्रतिकूलता होने पर इस गुणस्थान से पतित होने की संभावनाएं बनी रहती हैं। यह प्रकटीकरण अन्तर्मुहूर्त (48 मिनट) के अन्दर ही हो सकता है। इस अवस्था में जीव दर्शनमोहनीय का क्षय, क्षयोपशम, उपशम कर लेता है किन्तु चारित्रमोहनीय का क्षय शेष हो तो इसे सम्यग्दृष्टि जीव कहा जाता है। चतुर्थ गुणस्थानधारी आत्माएँ मात्र सुदेव, सुगुरू व सुधर्म को मानती हैं। इस गुणस्थान का आरम्भिक दौर विवशतापूर्ण है जिसमें जीव अच्छे - बुरे का ज्ञान होते हुए भी बुरे से प्रथक नहीं रह पाता है जैसा कि महाभारत के वर्णन में देखने को मिलता है यथाकौरवों के अनुचित पक्ष में खड़े पितामह भीष्म व महात्मा विदुर की विवशता। अविरत सम्यग्दृष्टि जीव द्वारा प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति साकार या ज्ञानोपयोग की अवस्था में जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है तथा तेजो लेश्या के जघन्य अंश में वर्तमान जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है। सयारे पदढ़वओ णिटठवओ माज्झेमोय भय णिज्जो। जोगे अण्णदरम्मि दु जहण्णाए तेउल्लेसाए।। ध.ग्रंथ. खण्ड6. पृष्ठ 239।। असंजद सम्माइट्ठी- जिसकी दृष्टि (श्रद्धा) समीचीन होती है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं और जो इससे रहित हैं वह असंयत सम्यग्दृष्टि हैं। सम्यग्दृष्टि जीव के तीन प्रकार हैं- क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्पदृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि। सम्माइट्टीजीवो उवइड एवयणं तु सदठदि। 33

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