Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

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Page 31
________________ उवसम्मताओ चयओ मिच्छं अपावमाणस्स । ससायणसम्मतं तयंतरालंमिछायलिअं । ध. ।। उपशम श्रेणी पर चढी हुई आत्मा जब अन्तर्मुहूर्त काल के पश्चात् पतन की ओर उन्मुख होती है तो ग्यारहवें गुणस्थान से क्रमशः गिरती हुई दूसरे सास्वादन गुणस्थान को प्राप्त होती है। इस गुणस्थान में जीव के सम्यक्त्व अंश का अनुभव ठीक उस तरह रहता है जैसे खीर खाने के पश्चात् वमन होने पर खीर का अस्वाद । इस गुणस्थान में अल्प समय के लिए सम्यक्त्व का आस्वादन है। धवलासार (गाया - 1, 1, 10) में कहा गया है कि आसादनं सम्यक्त्वविराधनं सह आसादनेन वर्तत उति सासादनो विनाशित सम्यग्दर्शनोआप्त मिथ्यात्व कर्मोदय जनित परिणामो मिध्यात्वभिमुखः सासादन इति मण्यते । जो सम्यक्त्व की विराधना सहित है, उसे सास्वादन कहते हैं। जो प्राणीं सम्यक्त्व रूपी प्रासाद से गिरा हुआ है और जिसने मिथ्यात्व की भूमि का स्पर्श नहीं किया है, सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व इन दोनों के मध्य की जो अवस्था है, उसे सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं। अविसम्त्तद्धा समयादो छावलित्ति वा सेसे। अप अण्ण वरूवयादो णासिय सम्मीति सासणक्खो सो।। (गो. जी. 19) जब प्रथमोपशम सम्यक्त्व एवं द्वितियोपशम सम्यक्त्व की स्थिति कम से कम एक समय, अधिक से अधिक छह आवली प्रमाण शेष रहती है, तब इस जीव के अनन्तानुबंधी कषाय के चार भेदों में से किसी एक भेद का उदय आ जाने से सम्यक्त्व की विराधना होने से आत्मा नीचे गिरती है और जब तक मिथ्यात्व भूमि का स्पर्श नहीं करती तब तक यह अवस्था सासाद गुणस्थान की है। असन का अर्थ होता है नीचे गिरना और आसादन का अर्थ होता है- विराधना । गाथा में जो 2 अण्ण अण्ण वरुवयादों का उल्लेख किया गया है उसका अर्थ है कि अनन्तानुबधी क्रोध, मान, माया, लोभ इनमें से किसी का भी उदय होते ही सासादन गुणस्थान होता है। इसी प्रकार मान प्रेरित, माया प्रेरित और लोभ प्रेरित सासादन गुणस्थान हुआ करता है। यह सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर गिरने की एक मध्य स्थिति है जिसमें सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद (आस्वादन के बाद) वहाँ से च्युत तो हो चुका है किन्तु अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है सम्यक्त्व रस के आस्वाद का हल्का सा अनुभव शेषाशं रूप में है। इस अवस्था में न तो वह तत्त्व ज्ञान का धारक है और न ही ज्ञान शून्य । इस स्थिति को सादिशान्त कहते हैं। इसका जघन्य काल एक समय, उत्कृष्ट काल छह आवलि का है। दूसरा गुणस्थान भव्य जीवों को ही प्राप्त होता है ( जो पहले भव्य रहे हैं) 3. मिश्र या सम्यक-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान यह गुणस्थान भी जीव के चतुर्थ गुणस्थान से पतनोन्मुख हो जाने पर पश्चातवर्ती प्रथम सोपान है अर्थात् सामान्य स्थिति नियम यह है कि इस गुणस्थान में आत्माएं चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर पहुँचती हैं। आरम्भ की व्यवस्थाओं के अनुरूप उत्क्रान्ति की स्थिति में कुछ आत्माएं प्रथम गुणस्थान से तृतीय गुणस्थान तक पहुँचती हैं किन्तु ये वे आत्माएं हैं जिन्होंने पहले कभी प्रथम गुणस्थान से निकलकर चतुर्थ गुणस्थान का बोध कर 31

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