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व गुणस्थान विकास के 14 क्रमों का वर्णन भले ही नियतक्रम में न हुआ हो फिर भी आध्यात्मिक विकास के बीज किसी न किसी रूप में वहाँ अवश्य विद्यमान रहे थे। सच यह है कि इस विकास आरोहण पथ में पहली बार 4-5वीं सदी के अंत में उत्थान-पतन का समुच्चय स्पष्ट हुआ है। भावनात्मक उतार-चढ़ाव तर्क संगतता की कसौटी कहे जा सकते हैं जो गुणस्थान विभावना का आधार बने। इस दिशा में षट्खण्डागम के व्याख्यासूत्रों में वर्णित 11 अवस्थाओं के आधार पर स्पष्टताकी जा सकती है - दर्शनमोहउपशमक, संयतासंयत(अघापवत्र) अघःप्रवृत्त, अनन्तानुबन्धी विसंयोजक, दर्शनमोहक्षपक, कषाय उपशमक, उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ, कषायक्षपक, क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, अघःप्रवृत्त एवं योग निरोध केवलीसंत।।
षट्खण्डागम के व्याख्यासूत्र।।
योग निरोध केवलीसंत अवस्था गुणस्थान सिद्धान्त के विकास क्रम में अयोग केवली के रूप में जानी गई। इन 11 स्थितियों में तीन अवस्था यथा मिथ्यात्व, सासादन व मिश्र और जुड़ी जिससे इनकी संख्या 14 हुई। इन अवस्थाओं में अनन्त वियोजक, दर्शनमोहक्षपक और कसायउपशमक के स्थान पर क्रमशः अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण ये तीन नये नाम आये। इसी प्रकार उपशान्त कसाय और क्षपक के स्थान पर सूक्ष्म साम्पराय थथा उपशान्तमोह नामक दो अवस्थाएं बनी। मूल गाथा में वर्णित 10 अवस्थाओं में पतन की कोई कल्पना नहीं है जबकि सास्वादन व मिश्र गणस्थान का उदय इसी कल्पना की देन है। इसी क्रम में आगे देखें तो मूल गाथाओं में 10वें गुणस्थान से आरोहण की क्षपक और उपशम की दृष्टि से अलग-अलग विधान नहीं है जबकि 10वें गुणस्थान से आरोहण हेतु उक्त दृष्टि से जीव अलग-अलग गुणस्थानों (उपशम से 11वें तथा क्षय से 12वें गुणस्थान क्रम में) पहुँचता है। रचना काल की दृष्टि से इन्हें निम्नक्रम में रखा जा सकता है।
1. पूर्व साहित्य में कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी ग्रंथ 2. आचारांग नियुक्ति- आर्यभद्र दूसरी सदी 3. तत्त्वार्थसूत्र- उमास्वामि या उमास्वाति तीसरी-चौथी सदी 4. कसायपाहुइसुत्त- गुणधर चौथी सदी 5. षट्खण्डागम- पुष्पदंत-भूतबलि पाँचवीं-छठी सदी 6. गोम्मटसार- नेमिचन्द्र दसवीं सदी का उत्तरार्द्ध