Book Title: Ghar ko Kaise Swarg Banaye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 15
________________ आहुति देते रहते हैं तो ही परिवार संयुक्त रह सकता है। परिवार को संयुक्त रखना परिवार के हर सदस्य का पहला कर्त्तव्य और धर्म है। अलग-अलग रहने वाले का तो नमक भी महँगा पड़ता है। एक साथ रहने वालों में अगर चार हैं तो ‘चौधरी' और पाँच हैं तो पंच कहलाते हैं। यदि चार भाई साथ रहते हों और उनमें से किसी एक की किस्मत बिगड़ जाए और उसे हर ओर से घाटा उठाना पड़े तो अन्य तीनों भाई मिलकर उसके कष्टों का निवारण कर देंगे जब कि अकेले रहने वाले को विपत्ति के समय में दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर होना पड़ेगा। जो भाई भाई का नहीं हो सकता वह मित्र का भी नहीं हो सकता। जो भाई मित्र का नहीं हो सकता, वह समाज का भी नहीं हो सकता। यदि तुम किसी का साथ नहीं दे सकते तो तुम्हारा साथ कौन देगा? ___ अगर आप पांच भाई हैं तो उनमें से तीन शहर में और दो गाँव में रह सकते हैं। यदि शहर में तीनों भाई अलग-अलग रहते हों और प्रत्येक भाई ढाई हजार रुपये किराया देता है तो साढ़े सात हजार रुपये लग गए किन्तु अगर साथ में रहते तो चार हजार में ही अच्छा-सा मकान मिल जाता। इससे खर्चा भी कम होता और एकदूसरे के साथ सहभागिता भी अधिक होती। आप जब बीमार हो जाओगे तो पड़ोसी नहीं अपितु आपका भाई ही काम आएगा। एक और एक ग्यारह होते हैं, पर अगर एक और एक के बीच इंटु, प्लस, माइनस लगाते रहे तो यही एक और एक दो हो सकते हैं या जीरो रह सकते हैं। मेरे-तेरे और स्वार्थ के इंटु, प्लस, माइनस हटा दिये जाएँ तो इसी एक और एक को ग्यारह होने से कोई रोक नहीं सकता। भाई-भाई का तो एक ही नारा हो - हम सब साथ-साथ हैं। ____ ज़रा हमारी बात सुनिए । जब हमारे पिता ने संन्यास लिया तो अपने बच्चों से (हम भाइयों से) कहा था, 'बच्चो, तुम्हें जैसा जीना हो वैसा जीना। मैं कोई दखल नहीं दूंगा लेकिन जब तक हम संत माता-पिता जीवित रहें, तुम लोग अलग-अलग मत होना। इसके अतिरिक्त जो तुम्हें करना हो, करते रहना।' हमें संन्यस्त हुए सताईस वर्ष हो गए हैं, पर हमें याद नहीं पड़ता कि इन सत्ताईस वर्षों में हम भाइयों के बीच कभी 'तू-तू-मैं-मैं' हुई हो। अरे, भाई-भाई लड़ने के लिए नहीं होते। हमारे माता-पिता ने हमें कोई लड़ने के लिए थोड़े ही पैदा किया है। जो उन्होंने कहा वह हमें मंजूर और जो हमने कहा वह उन्हें मंजूर, भाई-भाई के बीच प्रेम को अखंड बनाये रखने का यही मूलमंत्र है। 14/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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