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लिफाफे में डलवाकर जा रही हूं। बेटा, जैसे मैं बूढ़ी हुई हूँ ऐसे ही एक दिन तुम भी बूढ़े हो जाओगे। तुम तो मेरे बहुत अच्छे, बहुत प्यारे बेटे हो जो तुमने पाँच सौ रुपए हर महीने मुझे भेज दिए। लेकिन बेटा, ज़माना बदल रहा है। एक दिन तुम भी बूढ़े होओगे, हो सकता है तुम्हें भी ऐसे ही किसी 'अपना घर' में रहना पड़े। मुझे नहीं पता उस समय तुम्हारा बेटा तुम्हें पाँच सौ रुपए भी भेज पाएगा या नहीं। उस समय तम्हें पैसों की दरकार रहेगी। ये पन्द्रह हजार रुपए मैं तुम्हारे उस समय के लिए छोड़कर जा रही हूँ।"
माँ, तुम सचमुच माँ हो। त्याग का यज्ञ हो। माँ इस त्याग के यज्ञ को पूरा करना तुम्हारी ही ताक़त के बलबूते पर है । हम पुत्रों के बल पर यह त्याग का यज्ञ पूरा नहीं किया जा सकेगा। शायद दुनियाँ का बड़े से बड़ा करोड़पति भी रोजाना दान नहीं देता होगा पर माँ तो रोजाना दान देती है। सरवर, तरवर और संतजन की तरह निष्पृह दान देती है। जितना उसने हमसे लिया है उससे कईकई गुना अधिक उसने हमें लौटाया है। माता-पिता दिन-भर में बेटे की चार रोटियाँ खाते होंगे, पर वे दिनभर तुम्हारे बच्चों को सहेज-सम्भालकर संस्कार देते रहते हैं। माँ-बाप तो घर के मुफ्त के चौकीदार हैं। बूढ़े माँ-बाप तो उस बढे पेड की तरह होते हैं जो फल भले ही न दे पर जो भी उनके पास आकर बैठते हैं उन्हें अपनी शीतल सुखद छाया तो देते ही हैं।
माता के तो बहुत सारे अवढ़र दान हैं। लेकिन अब जरूरत आ पड़ी है कि हम अपनी ओर से माँ के प्रति रहने वाले दायित्वों को किस तरह निभाते हैं, यह सोचो। सोच-सोचकर सोचो। जो माँ के साथ हैं वह सोचें, जो माँ से अलग हैं वह सोचें, जिनकी माँ ऊपर जा चुकी है वे भी सोचें कि हमने अपनी ओर से उनके प्रति कितने दायित्व और फ़र्ज़ अदा किए हैं, या अदा कर रहे हैं अथवा अदा करेंगे।
माँ के प्रति अपने फ़र्ज़ अदा करने हैं तो पहला कर्त्तव्य यह निभाओ कि सुबह उठते ही अपने माता-पिता को प्रणाम अवश्य करो। हमारी आँख खुले तो सबसे पहले माँ के चरणों के दर्शन हों। उनसे मिली हुई दुआएँ जगदम्बा से मिली हुई दुआएँ हैं। माँ के चरणों में जाकर अपना मत्था टेकें। पंचांग नमन करें। दो घुटने, दो हाथ, चारों ज़मीन पर टिकाकर, करबद्ध होकर मस्तक उनके पाँवों में झुकाकर उनके हाथ को अपने माथे पर रखाओ। माँ के हाथ से 70 |
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