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कहा, 'आ जा, खाना खिला दूं।' हनुमान ने कहा, 'रहने दो मांजी।' सीताजी बोली, 'नहीं, नहीं, आ जा, आज मैं ख़ुद खाना बना रही हूँ, तू आ जा? हनुमान जी ने सोचा, पता नहीं कब सीता मैया के हाथ का खाना मिले, तो बैठ गए खाने के लिए और खाते गए, खाते ही चले गए। सारे नौकर थक गए, चार लोगों के लिए जो खाना बनाया था वह ख़त्म हुआ ही, रसोई खाली हो गई। सीता जी भी बनाते-बनाते थक गईं, पर हनुमान थे कि रुके ही नहीं। अब तो सीता जी दौड़ी-दौड़ी राम जी के पास गईं, सारा हाल सुनाया। राम ने पूछा, 'तुमने उन्हें क्या खिलाया?' सीताजी बोलीं 'खाना'। राम ने हँसते हुए कहा, 'अरे उन्हें तो प्रसाद खिलाओ। वह खाना खिलाने के काबिल नहीं हैं। उसे तो बस प्रसाद दो। यह लो तुलसी के चार पत्ते, कहना रामजी का प्रसाद है।' सीता ने तुलसी उन्हें दे दी। हनुमान तृप्त हो गये और बोले, 'अरी माँ, ये प्रसाद पहले क्यों नहीं खिलाया?'
अपने घर के भोजन को भी प्रसाद बना लो और जब पहला कौर खाओ तो यह न सोचो कि मैं खा रहा हूँ, सोचो कि भीतर जो भगवान बैठे हैं, उन्हें भोग चढ़ा रहा हूँ। मंदिर के भगवान को आप गंदी चीजें नहीं चढ़ाते हैं फिर भीतर के भगवान को कैसे चढ़ा सकते हैं ? हम सभी के भीतर भी तो भगवान विराजमान हैं। अगर आप यह मानसिकता बना लें तो आपसे भी तंबाकू, जर्दा, सिगरेट, शराब, गुटखा अपने शरीर को चढ़ न पाएगा। पता नहीं, शिवभक्त शिवरात्रि को भांग घोट-घोट क्यों चढ़ाते हैं ? अरे, ख़ुद को पीना है तो शिव को बीच में क्यों लाते हो? अगर चढ़ाना ही है तो अपनी पीने की लत को चढ़ा दो। यह बुरी लत भगवान को चढ़ाओ कि 'हे प्रभु, हम जो भांग पीते रहे हैं, आज तुम्हारे द्वार पर आया हूँ और आज से इस बुराई का त्याग करता हूँ'। यह होगी असली शिवरात्रि अथवा शिवभक्ति।
भोजन भी दो प्रकार का होता है-1. प्रेयकारी और 2. श्रेयकारी। जो भोजन खाने में प्रिय लगे वह प्रेयकारी और जो परिणाम में सुखदायी होता है वह श्रेयकारी । ज़्यादा तेल, मिर्च, मसाले का भोजन प्रियकारी तो होता है, पर श्रेयकारी नहीं होता। आजकल लोग शादी-विवाह में इतने आइटम बनाते हैं कि अगला उकता जाता है कि किसे खाए और किसे छोड़े। एक तो खाना 116 |
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