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देने पर भी बेसुरी आवाज़ ही आएगी। इन्सान को वीणा के तारों से प्रेरणा लेनी चाहिए और वीणा के तारों के समान ही व्यक्ति को अपने तन और मन को भी साधना चाहिए।
हमारी देह केवल नश्वर नहीं है बल्कि नूर की तरह जगमग है और ईश्वर या रब या अल्लाह के रहने का स्थान भी है। जैसे मंदिर या मस्जिद में सिगरेट चढ़ाना पाप समझा जाता है उसी तरह व्यक्ति अपने शरीर के प्रति भी मंदिर का भाव रखे तो उसके लिए इस शरीर को ग़लत चीज़ों का आदी बनाना दूभर हो जाएगा। यह हमारे ग़लत नज़रिए का परिणाम है कि हमने भगवान को मंदिर, मस्जिद, गिरज़ा और गुरुद्वारे तक ही सीमित कर दिया है, जबकि हर प्राणी में, प्राणिमात्र में, सम्पूर्ण प्रकृति में ही ईश्वर विराजमान है । जब मंदिरों में पत्थर की प्रभु-प्रतिमा को माखन-मिश्री चढ़ाना 'भोग' कहलाता है तो अपने ही घर में काम करने वाले नौकर को माखन-मिश्री चढ़ाना क्या यह भोग नहीं होगा?
जो मंदिर में जाकर तो भोग लगाते हैं लेकिन घर पहुँचकर अपने बेटे की छोटी-सी ग़लती पर उसे माफ़ न करके थप्पड़ जड़ देते हैं तो यह थप्पड़ उस बच्चे को नहीं मंदिर में रहने वाले कान्हा को लगता है।
जरूरी है कि व्यक्ति अपने शरीर के प्रति थोड़ा-सा जागरूक हो जाए तो वह अपने स्वास्थ्य के लिए बेहतर इंतज़ाम कर सकता है। हम सभी जानते हैं कि पंचतत्त्वों से इस देह का निर्माण होता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-जीवन और जगत के मूल बुनियादी पाँच तत्त्व हैं। इनका मिलन और संतुलन ही जीवन है और इनका बिखरना या बिगड़ना ही व्यक्ति के लिए रोग और मौत है। जो लोग रोज़-ब-रोज़ बीमार पड़ते हैं, जिनके कभी घुटनों में, कभी कमर में, कभी पीठ में दर्द रहता है या किसी को गैस ट्रबल है, हार्ट पेशेंट है, दिमाग़ बोझिल रहता है, वे लोग शरीर के इन पाँच तत्त्वों के असंतुलन का शिकार होते हैं। व्यक्ति इन पाँच तत्त्वों का संतुलन स्थापित करके अपना उपचार कर सकता है। इसलिए रुग्ण व्यक्ति को चाहिए कि वह सबसे पहले प्रकृति के सान्निध्य में जाए।
जब आपको अहसास होता है कि आप बीमार हो रहे हैं तो सबसे पहले आप अपना खानपान बदलें और हवा-पानी बदलने के लिए किसी दूसरे स्थान
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