Book Title: Ghar ko Kaise Swarg Banaye Author(s): Chandraprabhsagar Publisher: Jityasha FoundationPage 29
________________ धरती पर प्रेम है, इसीलिए यह धरती जीने के काबिल है। अगर धरती पर से प्रेम का पानी सूख जाए तो संसार में चार दिन जीना भी दूभर हो जाएगा। जीवन में अगर प्रेम की सरसता, प्रेम की मधुरता है, प्रेम का आनन्द है तो संसार में जिई जाने वाली सौ साल की जिंदगी भी छोटी है। प्रेम ही वह तत्त्व है जो संसार में स्वर्ग का द्वार खोलता है। पति-पत्नी में प्रेम हो तो स्वर्ग धरती पर ही है, भाई-भाई में प्रेम हो तो रामायण का रस यहीं ज़मीन पर ही है । पिता-पुत्र में प्रेम हो तो यह धरती ही बैकुंठधाम है। प्रेम यानी यों समझो जैसे स्वर्गलोक से कोई परी उतर आई हो, किसी गंगा ने अवतार ले लिया हो । प्रेम से ही प्रार्थना का जन्म होता है। प्रार्थना से मौन और शांति साकार होती है । शांति से ही आनन्द की निष्पत्ति होती है और आनन्द ईश्वर का निज स्वभाव है। ईश्वर के तीन गुण हैं - सत् + चित् + आनन्द = सच्चिदानन्द। परिवार में, समाज में, देश में, यहाँ तक कि पूरे विश्व में प्रेम चाहिए। विश्वशांति का आधार विश्व - प्रेम है। प्रेम परिवार को जोड़ता है। समाज में एकता के बीज बोता है। दो राष्ट्रों के बीच सेतु का काम करता है। लड़ने का काम हम लोगों ने अपनी नासमझी के चलते अब तक ख़ूब कर लिया। परिवार, समाज और देश में लड़ाई की नहीं, परस्पर प्रेम और भलाई की ज़रूरत है। रुखसत की नहीं, मोहब्बत की ज़रूरत है। पिछले 2500 सालों से हम लड़ते ही तो आए हैं। एक राजा दूसरे राजा के साथ पानी और नदी के नाम पर, धन-संपत्ति - ख़ज़ाना लूटने के नाम पर, अधिकार - क्षेत्र बढ़ाने के नाम पर । हम केवल 25 सालों के लिए संघर्ष की बजाय अगर भाई-भाई और सच्चाई से मोहब्बत करना शुरू कर दें तो हमारी इस सारी दुनिया का कायाकल्प हो जाए। दुनिया को आपस में जोड़ने के लिए ही विभिन्न धर्मों का जन्म हुआ । धर्मों ने दुनिया को जोड़ा भी होगा, लेकिन धर्म के नाम पर दिए गए उपदेश जब आग्रह और दुराग्रह का रूप ले बैठे तो धर्म ने इंसानियत को तोड़ने का काम शुरू कर दिया। जो धर्म पाँव की पायजेब था वह बेड़ी बन गया। जो हाथों का चिराग था वह हाथों की हथकड़ी बन गया। आज ज़रूरत किसी नए धर्म की नहीं है बल्कि आपस में टूटे हुए इन धर्मों को जोड़ने की है । आज ज़रूरत उस धागे की है जो मानवता के फटे हुए वेश को आपस में साँध सके, जोड़ सके, इंसानियत के लिए अपना स्वरूप उपयोगी बना सके 28 | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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