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प्रवचन-४९ उदार था वह गृहस्थ । एक लाख रूपये का दान दिया, इससे उसकी प्रतिष्ठा बन गई। कुछ लोग तो उसके पास अपने लाखों रूपये की जमानत रख गये। यह महानुभाव भी लाखों रूपयों का दान देता गया! सट्टे में हारता गया। कर्जदार बनता गया...एक दिन उसको लगा कि मेरी प्रतिष्ठा नहीं टिकेगी, तो उसने आत्महत्या कर डाली। प्रतिष्ठा का प्रलोभन, तीव्र व्यामोह नहीं होना चाहिए | अच्छे कार्य करने से प्रतिष्ठा बनती है, समाज में इज्जत मिलती है, परन्तु उस प्रतिष्ठा के साथ बंध जाना नहीं चाहिए। प्रतिष्ठा चली जाये तो दीन-हीन बनना नहीं चाहिए। प्रतिष्ठा का लोभ भी त्याज्य है। मद : दोस्त के रूप में दुश्मन : | __ जिस प्रकार काम-क्रोध और लोभ आन्तरिक शत्रु हैं, वैसे 'मद' भी आन्तरिक शत्रु है। मित्र के वेश में शत्रु है। अज्ञानी मनुष्य परख नहीं सकता है और फँस जाता है। इन आन्तरिक शत्रुओं से मात्र आध्यात्मिक अहित होता है, ऐसा मत मानना; भौतिक, आर्थिक और शारीरिक अहित भी होता है। परन्तु जब तक मनुष्य आन्तरिक खोज नहीं करता है तब तक यह सत्य को नहीं समझ पाता है। आन्तरिक शत्रुओं से ही वास्तव में नुकसान हुआ हो, परन्तु मान लें कि 'यह तो मेरे पूर्वजन्म के पापों के उदय से दुःख आया....' अथवा तो ईश्वरवादी कह दें कि 'यह तो भगवान की इच्छा से दुःख आया...' तो कभी भी आन्तरिक शत्रुओं की परख नहीं होगी और उन आन्तरिक शत्रुओं को मिटाने का पुरूषार्थ नहीं होगा।
अभिमान किया और आर्थिक नुकसान हुआ, यदि वहाँ यह नहीं सोचें कि 'मेरे अभिमान से मुझे यह आर्थिक नुकसान हुआ है, तो वह अभिमान से मुक्ति नहीं पा सकेगा | मेरे अभिमान से मुझे केवलज्ञान और वीतरागता नहीं प्राप्त हो रहे हैं', यह बात बाहुबली को एक वर्ष तक खयाल में नहीं आयी....एक वर्ष तक, श्रमण बनकर, एक जगह कार्योत्सर्ग-ध्यान में खड़े रहे! न कुछ खाया, न कुछ पिया उन्होंने! न किसी से कुछ बोले, न कोई खराब चिन्तन किया। फिर भी उनको केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। अभिमान बाधक है ज्ञान की प्राप्ति में :
आप लोग जानते हो न कि, बाहुबली भगवान ऋषभदेव के पुत्र थे। सबसे बड़े पुत्र थे भरत, और उनसे छोटे थे बाहुबली | बाहुबली से छोटे ९८ पुत्र थे। भगवान ऋषभदेव ने जब संसार-त्याग किया था तब अपने १०० पुत्रों को
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