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प्रवचन- ४९
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में किसी पद की योग्यता है और जनता आपको उस पद पर बिठाना चाहती है, तो आप बैठ सकते हो उस पद पर, परन्तु उससे चिपक नहीं जाने का । अच्छे लोग, दृढ़ मनोबल के साथ यदि राजनीति में आयें तो देश का भला हो सकता है, परन्तु निर्लोभी और निःस्पृही हो तब ! पदप्राप्ति की तीव्र इच्छा नहीं होनी चाहिए।
दूसरी बात है पैसे की । धन-संपत्ति की तीव्र इच्छा नहीं होनी चाहिए ! धन का लोभ, धनसंग्रह की वृत्ति बहुत खराब है । धनचिन्ता मनुष्य के मन को मलिन, चंचल और तामसी बना देती है । धनार्जन और धनसंग्रह की चिन्ता जिसको लगी, वह मनुष्य आत्मचिन्ता नहीं कर सकेगा। इस मानवजीवन में मुख्यतया जो आत्मचिन्ता करने की है, वह आत्मचिन्ता धनलोभी मनुष्य नहीं कर सकता। वह तो दिन-रात धनप्राप्ति के भिन्न-भिन्न उपाय ही सोचता रहेगा । प्राप्त किये हुए धन को सुरक्षित रखने के उपाय ही खोजता रहेगा । उन उपायों में वह फिर पुण्य-पाप का भेद नहीं करेगा । मात्र अर्थचिन्ता में डूबा रहेगा.....इससे परिवार का असंतोष बढ़ता जायेगा और धर्मपुरुषार्थ से वंचित रहेगा। आज आप लोग जिनको 'उद्योगपति' कहते हैं, उनसे पूछो कि परिवार को उनसे संतोष है? उनसे पूछो कि आधा घंटा भी परमात्मा की भक्ति में जाता है? दिन में एक-दो भी सत्कार्य होते हैं क्या ? धन-संपत्ति के तीव्र लोभ में मनुष्य धर्मपुरुषार्थ को जीवन में योग्य स्थान नहीं दे सकता है। इसलिए ज्ञानी पुरूष कहते हैं कि धन का तीव्र लोभ मत करो। गृहस्थ जीवन में धनार्जन तो करना ही पड़ेगा । जीवनयापन करने के लिए धनप्राप्ति करनी पड़ेगी, परन्तु धन की तीव्र स्पृहा नहीं होनी चाहिए । धनप्राप्ति का समुचित पुरुषार्थ करने का है परन्तु धनप्राप्ति के लिए पागल - सा नहीं बनने का है। धनप्राप्ति के लिए गलत उपाय नहीं करने चाहिए।
प्रतिष्ठा-मानसम्मान की ज्यादा आसक्ति अच्छी नहीं :
तीसरी बात है प्रतिष्ठा की । प्रतिष्ठा यानी इज्जत ! इज्जत का तीव्र लोभ नहीं होना चाहिए। सामाजिक और धार्मिक प्रतिष्ठा बनाये रखनी चाहिए, परन्तु उसका तीव्र लोभ नहीं होना चाहिए । प्रतिष्ठा का तीव्र लोभ मनुष्य को दंभी बना देता है। प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए मनुष्य भ्रष्टाचारी बनता है, कर्जदार बनता है और एक दिन आत्महत्या भी कर लेता है।
बंबई के एक सद्गृहस्थ के पास, जो कि नौकरी करता था, दो-तीन लाख रूपये आ गये! सट्टा किया था, भाग्य खुल गया और लखपति बन गया ।
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