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प्रवचन-४९ हुए बिना सही धर्मपुरुषार्थ नहीं हो सकता है। धर्मपुरुषार्थ के बिना सुख नहीं मिल सकता है, शान्ति नहीं मिल सकती है। भीतरी शत्रुओं को पहचानो और त्यागो :
इसलिए कहता हूँ कि आन्तरिक शत्रुओं को जानो और त्यागो । शीघ्रातिशीघ्र जान लो आन्तरिक शत्रुओं को। अन्यथा धोखा होगा आपके साथ। शत्रु को मित्र मानकर, उस पर विश्वास करनेवालों की क्या दशा होती है, वह तो आप जानते हो न? तीव्र लोभी मनुष्य, शत्रु और मित्र की सही परख नहीं कर सकता है। मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र मानने की गलती कर ही देता है। 'लोभ' ही शत्रु है | भीतर का शत्रु है। यह शत्रु जीवात्मा को भ्रमित करने का ही काम करता है। लोभ के अनेक नाम हैं - तृष्णा, मूर्छा, आसक्ति, प्रलोभन, संग्रहखोरी.....इत्यादि।
अति लोभ नहीं होना चाहिए । अतिलोभी मनुष्य कभी भी इन्द्रियों को संयम में नहीं रख सकता है। इन्द्रियों का असंयम ही तो सभी पापों का मूल है। इन्द्रियों का असंयम ही दुर्गति का मूलभूत कारण है। ___ यदि रावण परस्त्री का लोभ नहीं करता तो उसका सर्वनाश नहीं होता न? यदि हिटलर रशिया को जीतने का लोभ नहीं करता तो उसका सर्वनाश नहीं होता न? खैर, जाने दो उन तीव्र महत्त्वाकांक्षी रावण और हिटलर को! अपनी बात करें अपन। आप लोगों को तीन बातों में तीव्र लोभ नहीं करना चाहिए। पद, पैसा और प्रतिष्ठा-इन तीन बातों से सावधान रहें। पद-प्रलोभन की ऊँची दीवारें :
पहले के जमाने में पद का लोभ राजपरिवारों में ही देखने को मिलता था। राजसभाओं में पद-लालसा देखी जाती थी। आज, स्वतंत्र भारत में पदलालसा गाँव-गाँव में और घर-घर में प्रविष्ट हो गई है। राजकीय क्षेत्र में तो पद-लालसा आप जानते ही हो! जनसेवा के नाम पर पहले तो ग्राम पंचायत में पदप्राप्ति का प्रलोभन होता है। बड़े शहर में नगरपालिका में पदप्राप्ति का प्रलोभन जगता है। यदि वहाँ कोई पद की प्राप्ति हो गई तो बाद में विधानसभा में जाने की इच्छा जाग्रत होती है। विधानसभा में पहुँचने के बाद 'मिनिस्टर' बनने की इच्छा जाग्रत होती है! 'मिनिस्टर' बनने के बाद 'चीफ मिनिस्टर' बनने की महेच्छा पैदा होती है। लोकसभा में जाने की, केन्द्रीय मंत्रीमंडल में प्रवेश पाने की और राष्ट्रपति बनने की महेच्छा होती है। जनसेवा
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