Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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आचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक दृष्टि
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उदार और व्यापक दृष्टिकोण, उपास्य के नाम-भेद को गौण मानकर उसके गुणों पर बल आदि दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का अध्ययन मुख्यतः दो दृष्टियों से किया जाता है-एक तो उन परम्पराओं की आलोचना करने की दृष्टि से और दूसरा उनका यथार्थ परिचय पाने और उनमें निहित सत्य को समझने की दृष्टि से । आलोचना एवं समीक्षा की दृष्टि से लिखे गये ग्रन्थों में भी आलोचना के शिष्ट और अशिष्ट ऐसे दो रूप मिलते हैं ।
यद्यपि हरिभद्र ने भी अपनी कुछ कृतियों में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है । अपने ग्रंथ धूर्ताख्यान में वे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहे अन्धविश्वासों का सचोट खण्डन भी करते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि वे न तो अपने विरोधी विचारों को भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करते हैं और न उनके सम्बन्ध में अशिष्ट भाषा का प्रयोग ही करते हैं । यह उनके दार्शनिक समन्वयात्मक दृष्टि का परिचायक है । वैचारिक समन्वयशीलता और धार्मिक उदारता की जिस ऊँचाई का स्पर्श हरिभद्र ने अपनी कतियों में किया है वैसा उनके पर्ववर्ती जैन एवं जैनेतर दार्शनिकों में हमें परिलक्षित नहीं होता । यद्यपि हरिभद्र के परवर्ती जैन दार्शनिकों में हेमचन्द्र. यशोविजय. आनन्दघन आदि अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रति समभाव और उदारता का परिचय देते हैं, किन्तु उनकी यह उदारता उनकी यह उदारता उन पर हरिभद्र के प्रभाव को ही सूचित करती है। "लोकतत्त्वनिर्णय" नामक ग्रंथ में आचार्य हरिभद्र कहते है
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिष ।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः॥३८॥ आचार्य हेमचंद्र पर उक्त श्लोक का स्पष्टतः प्रभाव दृष्टिगोचर होता है जहाँ वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश अथवा जिन (तीर्थकर) को नमस्कार करते हुए कहते है
भव-बीजांकुर जनना, रागाद्याक्षयमुपागता यस्य ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ महादेव-स्तोत्र ४४ ॥ वस्तुतः २५०० वर्ष के सुदीर्घ जैन इतिहास में ऐसा कोई भी समन्वयवादी उदारचेता व्यक्तित्व नहीं है, जिसे हरिभद्र के समतुल्य कहा जा सके । यद्यपि हरिभद्र के पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक आचार्यों ने जैन की अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उदारता का परिचय : अवश्य दिया है फिर भी उनकी सृजनधर्मिता उस स्तर की नहीं है जिस स्तर की हरिभद्र की है । उनकी कृतियों में दो चार गाथाओं या श्लोकों में उदारता के चाहें संकेत मिल जाएँ किन्तु ऐसे कितने हैं जिन्होंने समन्वयात्मक और उदारदृष्टि के आधार पर षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय और योगदृष्टिसमुच्चय जैसी महान् कृतियों का प्रणयन किया हो ।
दर्शन संग्राहक ग्रंथों की परम्परा में आचार्य हरिभद्र एक ऐसे महान् दार्शनिक व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने पूर्ण निष्पक्षता एवं उदारतापूर्वक बिना किसी खण्डन-मण्डन के निरपेक्ष भाव से दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रस्तुतीकरण किया । जैनेतर दार्शनिक ग्रंथ आचार्य शंकर विरचित
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