Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 339
________________ ३१४ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature को इसी प्रकार पं० दयाचंद्र साहित्याचार्य जी की कृतियों में आत्मोत्थान, चिंतन, त्याग, संयम आदि तत्त्वों की विशद व्याख्या है । पं० जवाहर लाल शास्त्री जी ने भी जैनदर्शन के गढ विषयों को जिनोपदेश, पद्मप्रभ स्तवनम्, आदि ग्रन्थों में प्रतिबिम्बित किया है । आपकी रचानाएँ "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" को चरितार्य करती प्रतीत होती हैं । राग-द्वेष, पाप त्याग पर बल दिया गया है । इसी प्रकार बीसवीं शताब्दी के अनेक रचनाकारों-जिनमें पं० गोविन्द राय शास्त्री, पं० जुगल किशोर मुख्तार, पं० बारेलाल जी राजवैद्य, प्रो० राजकुमार साहित्याचार्य, डॉ० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, पं० भुवनेन्द्र कुमार शास्त्री, डॉ० दामोदर शास्त्री प्रभृति रचनाकार प्रमुख हैं इन की तथा ऐसे सभी कवियों की रचनाओं में मानवीय गुणों, आदर्शों और उदात्त जीवन मूल्यों की सफल अभिव्यंजना हुई है । इन रचनाकारों ने उत्कृष्ट जीवन दर्शन की प्रतिष्ठा . के लिये सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि का पालन करने और सामाजिक बुराइयों । दर करने के लिए सम्यक-रत्नत्रय का आश्रय लेने पर बल दिया गया है। इनके ग्रन्थों में मानव का एकमात्र लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति निरूपित किया गया है। स्वस्थ समाज की रचना हेतु इन्होंने क्षमा, विनयशीलता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, तप, त्याग और परोपकारिता के गुणों को प्राणिमात्र के लिए आवश्यक निरूपित किया है । वर्तमान समय में जब मानवता पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं, निरन्तर आणविक अस्त्र-शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है, केवल भारत राष्ट्र ही नहीं प्रत्युत सम्पूर्णविश्व में परस्पर ईर्ष्या भाव एवं अविश्वास विद्यमान है, वैज्ञानिक विकास की उपलब्धियों ने मानवीय भावनाओं एवं आत्मचिंतन की प्रवृत्ति को आघात पहुँचाया है, विश्व पर्यावरण प्रदूषित हो चुका है और विश्व विनाशोन्मुख है ऐसे वातावरण में आत्मशांति, अहिंसा, सदाचार, प्रेम, परोपकार, ममता, करुणा, दया आदि मानवीय गुणों के साथ-साथ नैतिक उत्थान की विशेष आवश्यकता है । अतः उक्त मानवीय गुणों और आदर्शों की प्राप्ति के लिए बीसवीं शताब्दी के जैन-काव्यों का अध्ययनअनुशीलन अनिवार्य है, क्योंकि विवेच्यग्रन्थों में "वसुधैव कुटुम्बकम्", "सत्यमेव जयते," "अहिंसा परमो धर्मः," "क्षमा वीरस्य भूषण" आदि प्राचीन सिद्धांत पुष्पित, पल्लवित और फलीभूत भी हुए हैं । मानव मन का कालुष्य दूर करके उसे आदर्श नागरिक बनाने की अभूतपूर्व क्षमता संस्कृत जैन काव्यों में सन्निविष्ट है । संस्कृत जैन काव्य स्वान्तःसुखाय होकर भी लोकानुरंजन तथा लोकहितैषिता के उदात्त मूल्यों से सम्वेष्टित हैं । इनका प्रतिपाद्य अभिधेय नित नूतन, नव-नवोन्मेष-शालिनी कला वीथियों से नितरां भव्य और अभिराम है । ये समस्त काव्य अपने उद्देश्य की प्राप्ति में पूर्णत: सक्षम हैं । सदाचार-प्रवण व्यक्ति की इकाई से प्रारंभ होकर स्वस्थ समाज की दहाई के सृजन में अपनी महनीय भूमिका का निर्वाह करना ही जैन संस्कृत काव्यों का सर्वोपरि प्रदेय है और वस्तुतः यही साहित्य की इष्टापूर्ति स्वीकार की गयी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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