Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
॥३॥
उसको आलोचन प्रतिक्रमण के नाम से प्रायश्चित्त प्रतिरूप बनाया गया है । प्रस्तुत सूत्र का उपयोग सामायिक, प्रतिक्रमण, चैत्यवंदन, देववंदन आदि सभी क्रियाओं की आदि में होता है। अत: धार्मिक विधि में विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है।
इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इरियावहियं पडिक्कमामि ? इच्छं, इच्छामि पडिक्कमिउं
॥१॥ इरियावहियाए विराहणाए
॥२॥ गमणागमणे पाणक्कमणे, बीयक्कमणे, हरियक्कमणे, ओसा-उत्तिंग-पणग-दगमट्टीमक्कडा-संताणा संकमणे
॥४॥ जे मे जीवा विराहिया एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिदिया, पंचिंदिया
॥६॥ अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया,
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं अर्थ :
हे भगवन् ! स्वेच्छा से ईर्यापथिकी-प्रतिक्रमण करने की मुझे आज्ञा दीजिए । गुरु इस के प्रत्युत्तर में—पडिक्कमेह-प्रतिक्रमण करो । ऐसा कहे तब
शिष्य कहें कि मैं चाहता हूँ-आपकी यह आज्ञा स्वीकृत करता हूँ। अब मैं मार्ग में चलते समय हुई जीवविराधना का प्रतिक्रमण अन्तःकरण की भावनापूर्वक प्रारम्भ करता हूँ।
जाते-आते मुझ से प्राणी, बीज, हरि वनस्पति, ओस की बूंदे, चींटियों के बिल, पांचवर्ण की काई, कच्चा पानी, कीचड़, तथा मकड़ी का जाला आदि दबाने से,
जाते-आते मुझसे जो कोई एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, अथवा पाँच इन्द्रियवाले जीव दुःखित हुए हो ।
जाते-आते मेरे द्वारा कोई जीव ठोकर से मरे हो, धूल से ढ़के हो, भूमि के साथ कुचले
॥७॥
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