Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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गाहासत्तसई की लोकर्मिता
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डालने बात का बतंगड बनाने से बाज नहीं आते ।६२ "कुडङ्गण याणुआ सेसा'... कुओं के ठूठ बच रहे हैं 'मूलुच्छेअं ग पेम्म'... प्रेम की जडे कट गई'३ 'कजं बालुअवरण इव...बालू की भीत की तरह 'धुक्काधुक्कइ जीअं व विज्जुआ.. बिजली धुमधुका रही है" आदि अनेक ऐसी उक्तियाँ है जो 'गाहासत्तसई' के लोकरूप को प्रकट करती है ।।
इस प्रकार 'गाहासत्तसई' में लोकतत्त्व के सभी उपादानों की सन्निहिति सर्वत्र व्याप्त है । एक ओर प्राकृत भाषा की स्वाभाविक मधुरिमा और दूसरी ओर लोकतत्त्व की शत-शत सहजानुभूतियाँ अत्यन्त-व्यापक, विशद एवं प्रभावात्मक रूप में व्यक्त हुई हैं जिनके परिणाम स्वरूप सर्वत्र सहजता, नैसर्गिकता, जिनके अकृत्रिमता एवं सरलता परिलक्षित होती है, गाहासत्तसई की काव्यमयी धारा जहाँ एक भोले भाले ग्राम्य जीवन का नैसर्गिक स्पर्श करती है तो दूसरी ओर लोक जीवन की अमराइयों में विचरणं करती हुई सहजोद्रेक से आगे बढ़ती चली जाती है । वस्तुतः गाहासत्तसई लोकधर्मिता की दृष्टि से प्राकृत भाषा की श्रेष्ठ काव्यकृति है ।
पादटीप :१. डॉ० सत्येन्द्र-लोकवार्ता विज्ञान भाग १. पृ० सं० ३. २. (A) 'फोकलोर' इस शब्द की सर्वप्रथम व्याख्या सन् १८४६ में डब्ल्यू० जे० थॉमस ने की । तथा (B.)
इस शब्द का प्रयोग जॉन मेमव ने सर्वप्रथम डब्ल्यू जे० थॉमस के लिखे गये उस पत्र में किया था जो लंदन की पत्रिका 'एनी थेअम' थे सम्पादक के नाम लिखा गया था | A. Encyclopaedia Britanica
Volume XI Page No. 440 (B) Volume-VI Page No. 50 3. To denote the traditions, customs and superstitions of the uncleaned classes the
civilized nations- Encyclopaedia Britanica volume XI page No. 455. 8. Folk lore the traditions, and customs of these people Funks waghalls--New
standered Dictionary p. No. 954. ५. लोक साहित्य का अध्ययन पृ० सं० ६-७ । ६. भारतीय लोक साहित्य पृ० सं० २० । ७. The book of Folk Lore. ८. डॉ० रवीन्द्रभ्रमर-साहित्य में लोकतत्त्व पृ० सं० ४ । ९. गा० सं० १/४६ । १०. गा० सं० २/३२ । ११. गा० सं० ३/९९ । १२. गा० सं० २।८३ । १३. . . . . . . पुण्णेहिँ जणो पिओ होइ-सा० स० २/७४ । १४. अविइण्हपेच्छणिज्जं समसुहृदुःखं विइण्णसब्भावं ।
अण्णोण्णहिअअलग्नं पुण्णेहिँ जणो जण लहइ ॥ गा० स० १/९९ । १५. तेण ण मरामि मण्णूहि पूरिआ अज्ज जेणेरसुहअ ।
तोग्गअमणा मरन्ति मा तुज्झ पुणोति लग्गिस्सं ॥ (गा० सा० ४/७५)
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