Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
View full book text
________________
२१०
Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
मनोवैज्ञानिक चित्राङ्कन कवि ने सामान्य धरातल पर खड़े होकर किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है ।
कौटुम्बिक व्यवसाय पर आधारित जन्मसिद्ध जाति-संस्था गाथाओं में प्रमुखतया चित्रित है । सत्तसई का लोकसमाज हलिक, व्याध, पुलिन्द एवं अन्य व्यवसायी जातियों में विभक्त है । सत्तसई में भारतीय कृषक (हलिक) का चित्रण सर्वाधिक हुआ है ।३८ शालिक्षेत्र में जब धान की बालियाँ उसके घुटनों का स्पर्श करती है तो उसे हर्षातिरेक में ऐसा लगता है मानो उसका नन्हा सा दूध पीता बेटा उसके घुटने पकड कर खड़ा है :
पङ्कभइलेण दीरेक्कपाइणा आनन्दिज्जइ हलिओ पुत्तेण व सालिद्दे-तेण ॥३९
हलिकवधू के प्रेम और हलिक-दुहिता के अनिंद्य तारुण्य और प्रेम प्रसंगों के चित्र भी अंकित हैं । इसी प्रकार व्याधर पुलिन्द५३ गोप दान कर्मा आदि अनेक व्यावसायिक जातियों का उल्लेख हुआ है । इनके अतिरिक्त ग्रामणी, पल्लीपति का भी वर्णन मिलता है । ग्रामीण समाज में प्रचलित व्यवसायों और उद्योगों का अंकन सत्तसई में हुआ है । कृषि पशुपालन" जैसे मुख्य व्यवसाओं के अतिरिक्त 'मृगया'४९ का भी विशेष उल्लेख हुआ है ।
लोक-व्रतों में श्यामशबल साहेइ सामसबलंव... 'हुअवहवरुणाणं माहप्पं', कोशपान, 'कोसपाणुज्जअ व पमहादिवं णमह५१ आदि का उल्लेख सत्तसई में हुआ है । गाहासत्तसई में अनेक लोक-प्रथाओं का भी वर्णन हुआ है यथा सती प्रथा-'अणुमरणपत्थिआए पच्चागअजीविए पिअअमम्हि५२ वायनक वितरण की प्रथा-'घरपरिवाडीअ पहेणआई तुह दंसणासाए'५३ लांगनपूजन 'फलठीवाहणपुण्णाहमङ्गलं लङ्गले कुणन्तीए बहुविवाह आदि लोकप्रथाओं का बड़ा ही सजीव चित्रण मिलता है । लोकोत्सवों में फाल्गुनोत्सव के नाम से होली का वर्णन मिलता है ।।
'फग्गुच्छणणि दोसं केण वि कद्दमपसाहणं दिण्णं ६ रंगों का त्यौहार भारतीय समाज का सर्वाधिक लोकप्रिय पर्व है । पर्व ही नहीं लोक में प्रचलित खेलकूद एवं मनोरंजन के साधन वर्णित है जैसे उत्फुल्लिका, जलक्रीडा, पाशकशारी, मल्लयुद्ध, मृगया, नृत्य एवं संगीत, दोहद क्रीडा-७ भित्तिचित्रण, रात्रिजागरण, सारिका या कुक्कुटपालन आदि के वर्णन पूर्णतया ग्रामीण वातावरण के सन्दर्भ में प्राप्त होते हैं ।
लोकाख्यान, गीत तथा लोकोक्तियाँ लोक साहित्य के अन्तर्गत आते हैं। लोकाख्यानों और लोकगीतों का प्रत्यक्ष निबन्धन गाथाओं में सम्भव नहीं है तथापि प्राकृत भाषा के लोकछन्द 'गाहा' का चयन ही सत्तसई के लोकरूप को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है । गाथाओं में अनेकत्र गीतों के गाये जाने के संकेत हैं जो लोकवातावरण में ग्रामीणों द्वारा गाये गये लोकगीत ही हो सकते हैं यथा विवाद में मंगल गायिकाओं द्वारा गाये हुए गीत फसल पकने पर उल्लसित किसान का चाँदनी रात में गाया गीत मधुमास में गोपी के कंठ से फूटता विरहगीत २ आदि ।
प्राकृत भाषा की मनोहारी समाहार शक्ति को प्रमाणित करती लोकोक्तियों के अनूठे प्रयोग सत्तसई की गाथाओं में मिलते हैं । यथा 'सुईवेहे मुसल....यानि लोग भी सुई के छेद में मूसल
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org