Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 285
________________ २६० Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature जैसे 'बाले तिलकलेखेयं...' इत्यादि । वाग्भट का यह लक्षण अतिस्पष्ट है । आचार्य भरत६ लोकप्रसिद्ध अर्थ के स्पष्ट वर्णन को अर्थव्यक्ति कहते हैं और दण्डी१७ अर्थ की अनेयता को अर्थव्यक्ति मानते हैं तथा वामन८ के अनुसार अर्थ की स्पष्ट एवं तुरन्त प्रतीति होती हो वह अर्थव्यक्ति है । वाग्भट का निरूपण इन सब के अनुरूप ही है । ५, समाधि : अन्य का धर्म अन्यत्र आरोपित किया जाय उसे समाधि कहते हैं । अन्यस्य धर्मो यत्रान्यत्रारोप्यते स समाधिः ।१९ जैसे 'रिपुषु सहजतेजः पुञ्ज०. . .' इत्यादि। यहाँ आचार्य दण्डी० का अनुसरण दीखता है, किन्तु दण्दी के अनुसार एक का धर्म अन्यत्र आरोपित होने में लोक सीमा का अतिक्रमण न हो यह जरूरी है । वाग्भट में इस बात का कोई निर्देश नहीं है । यह गुण साध्यवसाना लक्षणा पर आधारित है इस दृष्टि से वह अतिशयोक्ति अलंकार के बहुत नजदीक है। उन दोनों में अंतर यह है कि अतिशयोक्ति में लोकसीमा का अतिक्रमण होता है परन्तु समाधि में नहीं । दण्डी का समाधिगुण अर्थगत है", जब कि भोज ने इसे शब्दगुण समाधि का लक्षण बताया है ।२२ वाग्भट प्रथम२३ एवं वाग्भट द्वितीय का निरूपण दण्डी तथा भोज के अनुरूप है फिर भी इस गुण के शब्दगतत्व या अर्थगतत्व के बारे में दोनों ने कोई निर्देश नहीं किया है। ६ समता : बन्धगत अविषमता को समता कहते हैं । अविषमबन्धत्वं समता ।२४ उसका उदा. है 'मसृमचरणपातं. . .' इत्यादि । इस गुण का लक्षण वामन२५ के अर्थगत समतागुण के अनुरूप ही है । वाग्भट प्रथम का समतागुण भी इसी स्वरूप का है । ७ औदार्य : बन्धगत विकटता औदार्य है । विकटबन्धत्वमौदार्यम् । जैसे कि, 'वाचाला . . .इत्यादि' । आचार्य वामन ने शब्दगुण उदारता को विकटत्वरूप माना है और वृत्ति में विकटता को समझाते हुए निर्दिष्ट किया है कि जिसके द्वारा बन्धगत पद मानो नृत्य करते हों तब वर्गों की लीलायमानतारूप विकटता को उदारता कहते हैं ।२८ भोज ने भी शब्दगुण औदार्य को इसी रूप में निरूपित किया है । ८ माधुर्य : माधुर्य का लक्षण इस प्रकार दिया गया है- यत्रानन्दममन्दं मनो द्रवति, तन्माधुर्यम् । शृङ्गारशान्तकरुणेषु क्रमेणाधिक्य (क) म् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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