Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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श्री वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथ चरित का साहित्यिक मूल्यांकन
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महाकाव्योचित लक्षण :
कृति के प्रत्येक सर्ग के अंत में कवि ने "श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वरचरिते महाकाव्ये... नाम...सर्ग..." इस तरह उल्लेख करके श्री पार्श्वनाथ चरित्र को महाकाव्य कहा है ।
भामह, दंडी, विश्वनाथ, रुद्रट, हेमचंद्राचार्य आदि विद्वानों ने अलग अलग तरीके से महाकाव्य की विभावना और स्वरूप प्रस्तुत किया है । अनेक कवियों के प्रयोगों और अनेक आचार्यों के मत-मतान्तरों तथा सिद्धान्त निरूपण के फलस्वरूप संस्कृत महाकाव्य का रूप उत्तरोत्तर विकसित होता गया और वह नये प्रभावों का ग्रहण करता गया । इस समय 'संस्कृत महाकाव्य' कहने से उसके वर्ण्य-विषय और प्रबन्धात्मक रूप-विधान का जो चित्र सामने आता है उसका वर्णन कुछ इस प्रकार किया जा सकता है । महाकाव्य सर्गबद्ध होना चाहिए और उसका कथानक न बहुत लम्बा और न बहुत छोटा होना चाहिए । कथानक नाटक की संधियों की योजना के अनुसार इस प्रकार संयमित हो कि वह समन्वित प्रभाव उत्पन्न कर सके । उसमें एक प्रधान घटना आद्योपान्त प्रवाहित होती रहे जिसके चारों ओर से अन्य उपप्रधान घटनाएँ आकर उसमें पर्यवसित होती रहें । कथानक उत्पाद्य-अनुत्पाद्य और मिश्र तीनों प्रकार का हो सकता है।
महाकाव्य का नायक धीरोदत्त सद्वंशोत्पन्न हो । यह क्षत्रिय या देवता हो तो अधिक अच्छा होगा । नायक का प्रतिनायक भी बल-गुण-सम्पन्न होना चाहिए; तभी तो उसे पराजय देने में नायक की महत्ता है। अन्य अनेक पात्रों का होना भी जरूरी है । नायिकाओं की चर्चा शास्त्रकारों ने महाकाव्य के लक्षण गिनाने में नहीं की है पर कोई महाकाव्य ऐसा नहीं है जिसमें नायिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका न हो ।
महाकाव्य में कथानक के इर्द-गिर्द अनेकानेक वस्तु-व्यापारों का वर्णन नितान्त आवश्यक है । लक्षणाकारों ने इनकी पूरी सूचि गिना दी है । संस्कृत के अलंकृत महाकाव्य का प्रधान लक्षण है कि उसमें घटना-प्रवाह चाहे क्षीण हो पर अलंकृत वर्णनों की प्रधानता होगी ।
नाटक के समान संस्कृत के महाकाव्यों में भी भाव-व्यंजना प्रधान तत्त्व है। भावों को परिपक्व बनाकर रस की योजना अवश्य करनी होती है । रस की उत्पत्ति पात्रों और परिस्थितियों के सम्पर्क, संघर्ष और क्रिया-प्रतिक्रिया से दिखाई जाती है। श्रृंगार, वीर और शांत रसों में से कोई एक रस प्रधान होता है । अन्य सभी रस स्थान-स्थान पर गौण रूप में प्रकट होते रहते हैं ।
मानवीय घटनाओं और व्यापारों के अतिरिक्त महाकाव्य में अमानवीय और अलौकिक तत्त्वों का समावेश भी अवश्य कराया जाता है । अतिप्राकृत घटनाओं और क्रियाकलाप का प्रदर्शन कहीं देवताओं के द्वारा कराया जाता है तो कहीं दानवों के द्वारा और कहीं इन दोनों से भिन्न योनि के जीवों द्वारा, जैसे-किन्नर, गन्धर्व, यज्ञ, विद्याधर, अप्सरा आदि ।
महाकाव्य में विविध अलंकारों की योजना होती है, उसकी शैली गरिमापूर्ण और कलात्मक होती है। उसमें विविध छंदों के प्रयोग का विधान होता है और उसकी भाषा उसकी गरिमामयी
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