Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 296
________________ श्री वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथ चरित का साहित्यिक मूल्यांकन २७१ महाकाव्योचित लक्षण : कृति के प्रत्येक सर्ग के अंत में कवि ने "श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वरचरिते महाकाव्ये... नाम...सर्ग..." इस तरह उल्लेख करके श्री पार्श्वनाथ चरित्र को महाकाव्य कहा है । भामह, दंडी, विश्वनाथ, रुद्रट, हेमचंद्राचार्य आदि विद्वानों ने अलग अलग तरीके से महाकाव्य की विभावना और स्वरूप प्रस्तुत किया है । अनेक कवियों के प्रयोगों और अनेक आचार्यों के मत-मतान्तरों तथा सिद्धान्त निरूपण के फलस्वरूप संस्कृत महाकाव्य का रूप उत्तरोत्तर विकसित होता गया और वह नये प्रभावों का ग्रहण करता गया । इस समय 'संस्कृत महाकाव्य' कहने से उसके वर्ण्य-विषय और प्रबन्धात्मक रूप-विधान का जो चित्र सामने आता है उसका वर्णन कुछ इस प्रकार किया जा सकता है । महाकाव्य सर्गबद्ध होना चाहिए और उसका कथानक न बहुत लम्बा और न बहुत छोटा होना चाहिए । कथानक नाटक की संधियों की योजना के अनुसार इस प्रकार संयमित हो कि वह समन्वित प्रभाव उत्पन्न कर सके । उसमें एक प्रधान घटना आद्योपान्त प्रवाहित होती रहे जिसके चारों ओर से अन्य उपप्रधान घटनाएँ आकर उसमें पर्यवसित होती रहें । कथानक उत्पाद्य-अनुत्पाद्य और मिश्र तीनों प्रकार का हो सकता है। महाकाव्य का नायक धीरोदत्त सद्वंशोत्पन्न हो । यह क्षत्रिय या देवता हो तो अधिक अच्छा होगा । नायक का प्रतिनायक भी बल-गुण-सम्पन्न होना चाहिए; तभी तो उसे पराजय देने में नायक की महत्ता है। अन्य अनेक पात्रों का होना भी जरूरी है । नायिकाओं की चर्चा शास्त्रकारों ने महाकाव्य के लक्षण गिनाने में नहीं की है पर कोई महाकाव्य ऐसा नहीं है जिसमें नायिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका न हो । महाकाव्य में कथानक के इर्द-गिर्द अनेकानेक वस्तु-व्यापारों का वर्णन नितान्त आवश्यक है । लक्षणाकारों ने इनकी पूरी सूचि गिना दी है । संस्कृत के अलंकृत महाकाव्य का प्रधान लक्षण है कि उसमें घटना-प्रवाह चाहे क्षीण हो पर अलंकृत वर्णनों की प्रधानता होगी । नाटक के समान संस्कृत के महाकाव्यों में भी भाव-व्यंजना प्रधान तत्त्व है। भावों को परिपक्व बनाकर रस की योजना अवश्य करनी होती है । रस की उत्पत्ति पात्रों और परिस्थितियों के सम्पर्क, संघर्ष और क्रिया-प्रतिक्रिया से दिखाई जाती है। श्रृंगार, वीर और शांत रसों में से कोई एक रस प्रधान होता है । अन्य सभी रस स्थान-स्थान पर गौण रूप में प्रकट होते रहते हैं । मानवीय घटनाओं और व्यापारों के अतिरिक्त महाकाव्य में अमानवीय और अलौकिक तत्त्वों का समावेश भी अवश्य कराया जाता है । अतिप्राकृत घटनाओं और क्रियाकलाप का प्रदर्शन कहीं देवताओं के द्वारा कराया जाता है तो कहीं दानवों के द्वारा और कहीं इन दोनों से भिन्न योनि के जीवों द्वारा, जैसे-किन्नर, गन्धर्व, यज्ञ, विद्याधर, अप्सरा आदि । महाकाव्य में विविध अलंकारों की योजना होती है, उसकी शैली गरिमापूर्ण और कलात्मक होती है। उसमें विविध छंदों के प्रयोग का विधान होता है और उसकी भाषा उसकी गरिमामयी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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