Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 303
________________ २७८ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature में उन्हें बिजली समझ सशंक हो जाते हैं । उस नगर के घरों की देहलियाँ चम चमाते हुये मणियों की बनी हुई हैं इसलिये वहाँ के बछड़े (गायों के छोटे बच्चे) उन्हें हरे हरे दूर्वा के अंकुर समझ खाने के लिये दौड़ते हैं । युद्ध के वर्णन में कवि ने अमित उत्साह बताया है। अहिंसा-मूलक जैन धर्म के उन्नयन और प्रसार के उद्देश्यवाले और श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर के चरित्रचित्रण करते हुए काव्य में युद्ध का वर्णन क्वचित् अप्रस्तुत लगता है । लेकिन युद्ध की विभीषिका का प्रत्यक्ष परिचय देकर कवि ने अहिंसा का महत्त्व निर्देशित किया है, ऐसा हम मान सकते हैं । युद्ध के वर्णनों में एकरूपता और पुनरावृत्ति भी है ही । अस्त्र-शस्त्र के नाम, सेना का युद्ध के लिये प्रयाण, युद्ध के प्रसंग आदि में एकरूपता होने पर भी वीररस का उत्साहप्रेरक आलेखन हुआ है । कवि की शब्द योजना और वर्णानुप्रास का कौशल्य भी इसमें सहायक होता है । वज्रनाभ राजा की विजययात्रा का सुंदर वर्णन छठे सर्ग के आरंभ में मिलता है । धर्म-चिंतन : ____नीति उपदेश और जैनधर्म के सिद्धांतों का माहात्म्य बतानेवाली कई सूक्तियाँ बीच बीच में बिखरी पडी हैं । हतवर्तिपधायि मानसं तिमिरं तत्परिमार्जनं वचः । गुरुबंधुजनोपदर्शितं कथमुल्लंघयमतो हितैषिणां ॥ (सर्ग-७, ८४) __ मानसिक अंधकार-अज्ञान (मोह) बड़ा ही प्रबल होता है वह अच्छे बुरे का विचार नहीं करने देता । उसको दूर करने में तेल और बत्ती का दीपक काम नहीं देता । उसको दूर करने वाले तो गुरु और बंधुओं के हितकारी वचन ही होते हैं इसलिये जो अपने हित को चाहने वाले हैं-सुख से रहना चाहते हैं उन्हें अपने बड़े लोगों के वचन कभी न टालने चाहियें उनका कभी भी उल्लंघन करना उचित नहीं । जहि कोपमपायकारणं जहि प्रौढांगदमं मदोद्धतिम् ।। गजराज ! जहीहि मत्सरं त्वममैत्री च जहाहि देहिभिः ॥११॥ इसके सिवाय तुम्हें यह भी उचित है कि जीव का सर्वथा नाश-अहित करने वाले कोप को छोड़ो, प्रौढ़ अंगों की दमन करने वाली मदोन्मत्तता को तिलांजलि दे दो, दूसरों से ईर्ष्या करना छोड़ दो और समस्त प्राणियों के साथ शत्रुता करने से भी बाज आ जाओ सब के साथ मित्रता का व्यवहार करना प्रारंभ कर दो ।। यदि प्रियासाद्यदि नाशि यद्यलं गुणच्छिदे यधुपतापसंघये । अनात्मनीनं तत एव तर्हि तद् वृथैव धिग्धिगे विषयोन्मुखं सुखम् ॥७६॥ विषयजन्य सुख पराधीन है, नष्ट हो जानेवाला है, गुणों का नाश कर देता है, पश्चाताप कराता है और अत एव आत्मा का वैरी है इसलिये उसे बार बार धिक्कार है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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