Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 335
________________ ३१० Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature ३. इनके नायक देव, ऋषि, मुनि नहीं है, अपितु राजाओं के साथ सेठ, सार्थवाह, धर्मात्मा व्यक्ति, तीथङ्कर शूरवीर या सामान्य जन आदि हैं । नायक अपने चरित्र का विकास इन्द्रिय दमन और संयम पालन द्वारा स्वयं करता है । आरंभ से ही नायक त्यागी नहीं होता, वह अर्थ और काम दोनों पुरूषार्थी का पूर्णतया उपयोग करता हुआ किसी निमित्त विशेष को प्राप्त कर विरक्त होता है, और आत्मसाधना में लग जाता है। जिन काव्यों के नायक तीर्थंकर या अन्य पौराणिक महापुरुष हैं उन काव्यों में तीर्थंकर आदि पुण्य पुरुषों की सेवा के लिए स्वर्ग से देवी-देवता आते हैं । पर वे महापुरुष भी अपने चरित्र का उत्थान स्वयं अपने पुरूषार्थ द्वारा ही करते हैं । ४. जैन संस्कृत काव्यों के कथा-स्तोत्र वैदिक पुराणों या अन्य ग्रन्थों से ग्रहण नहीं किये गये हैं, प्रत्युत उनका लोक प्रचलित प्राचीन कथाओं एवं जैन परंपरा के पुराणों से संग्रह किया गया हैं । कवियों ने कथावस्तु को जैन धर्म के अनुकूल बनाने के लिए उसे पूर्णतया जैन धर्म के साँचे में ढालने का प्रयास किया है। रामायण या महाभारत के कथांश जिन काव्यों के आधार हैं उनमें भी उक्त कथाएँ जैन परंपरा के अनुसार अनुमोदित ही हैं। इनमें बुद्धि-संगत यथार्थवाद द्वारा विकारों का निराकरण करके मानवता की प्रतिष्ठा की गई है। ५. संस्कृत जैन काव्यों के नायक जीवन-मूल्यों, धार्मिक निर्देशों और जीवन तत्त्वों की व्यवस्था तथा प्रसार के लिए "मीडियम" का कार्य करते हैं। वे संसार के द:खों एवं जन्ममरण के कष्टों से मुक्त होने के लिए रत्नत्रय का अवलम्बन करते हैं । संस्कृत काव्यों के "दुष्टनिग्रह" और "शिष्ट-अनग्रह" आदर्श के स्थान पर द:ख-निवत्ति ही नायक का लक्ष्य स्वयं की दुःख-निवृत्ति के आदर्श से समाज को दुःख-निवृत्ति का संकेत कराया जाता है । व्यक्ति हित और समाजहित का इतना एकीकरण होता है कि वैयक्तिक जीवनमूल्य ही सामाजिक जीवन मूल्य के रूप में प्रकट होते हैं । संस्कृत जैन काव्यों के इस आन्तरिक रचना तंत्र को रत्नत्रय के त्रिपार्श्व समत्रिभुज द्वारा प्रकट होना माना जा सकता है । इन जीवन त्रिभुज की तीनों भुजाएँ समान होती हैं और कोण भी त्याग, संयम, एवं तप के अनुपात से निर्मित होते हैं । ६. जैन संस्कृत काव्यों के रचना तंत्र में चरित्र का विकास प्रायः लम्बवत् (वरटीकल) नहीं होता जबकि अन्य संस्कृत काव्यों में ऐसा ही होता है । ७. संस्कृत के जैन काव्यों में चरित्र का विकास प्राय: अनेक जन्मों के बीच में हुआ है । जैन कवियों ने एक ही व्यक्ति के चरित्र को रचना क्रम से विकसित रूप में प्रदर्शित करते हुए वर्तमान जन्म में मोक्ष । निर्वाण तक पहुँचाया है । प्रायः प्रत्येक काव्य के आधे से अधिक सर्गों में कई जन्मों की परिस्थितियों और वातावरणों के बीच जीवन की विभिन्न घटनाएं अंकित होती हैं । काव्यों के उत्तरार्द्ध में घटनाएँ इतनी जल्दी आगे बढ़ती हैं जिससे आख्यान में क्रमश: क्षीणता आती-जाती है । पूर्वार्ध में पाठक को काव्यानन्द प्राप्त होता है जबकि उत्तरार्द्ध में आध्यात्मिकता और सदाचार ही उसे प्राप्त होते हैं । इसका कारण यह भी हो सकता है कि शान्तरस प्रधान काव्यों में निर्वेद की स्थिति का उत्तरोत्तर विकास होने से अंतिम उपलब्धि अध्यात्म तत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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