Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

Previous | Next

Page 308
________________ भीमसेनराजर्षिकथा २८३ को मर ने के लिए तैयार रहना था । उपाय यह था कि पर्वत की ओर तैरकर जाना था और वहाँ रह रहे भारंड पक्षिओं को आश्चर्यचकित करना था । आश्चर्य में पडे पक्षियों के पंख के पवन से नाव हिलेगी और बाहर निकल आयेगी । भीमसेन ने इस कार्य की जिम्मेदारी ली और पर्वत पर जाकर भारंड पक्षी को आश्चर्य में डालकर वहाँ से उडाया जिससे भारंड पक्षियों के पंख के पवन से नाव पानी से बाहर आ गई । उसके पश्चात् भीमसेन ने तोते से किनारे पर पहुँचने का मार्ग, पूछा, तोते ने कहा-'तु जल में गिर जा मछली तुझ को निगल जाएगी और किनारे पर पहुँच कर मुख खोलेगी, अगर मुख न खोले तो इस औषधि को उसके मुख में रख देना जिससे वह मुख अवश्य खोलेगी और तू किनारे पर पहुँच जाएगा' भीमसेन ने तोते के कथनानुसार किया और सिंहल के किनारे पहुँच गया । उसके बाद भीमसेन किसी अन्य दिशा का आश्रय लेकर आगे चला । वहाँ उसको त्रिदंडधारी मुनि मिला । मुनि ने उसको इस गाढ जंगल में आने का कारण पूछा तो भीमसेन ने मुनि से आपबीती कही । मुनि ने उसको सांत्वना दी और कहा 'तुं सिंहल द्वीप तक मेरे साथ चल वहाँ रत्नों का खजाना है बहूत से रत्न मिलेंगे । यह सुन भीमसेन मुनि के साथ चल दिया । कृष्ण चतुर्दशी की शत को मुनि ने भीमसेन को रत्नों की खाई में जाकर रत्नों को निकालने को कहा-रत्नों को लेकर वह मुनि चल दिया और भीमसेन उस खाई में ही इधर उधर घूमने लगा । उसने अन्दर एक अत्यन्त कृश पुरुष को देखा और उससे बाहर निकलने का उपाय पूछा । उस पुरुष ने कहा 'सुबह सूर्योदय होगा, विविध प्रकार के उत्सव मनाये जाएंगे । तब तू रत्नों के अधिष्ठाता देव से छुपकर बाहर निकल जाना । इस तरह भीमसेन को आश्वासन देते हुए पुरुष ने अन्य बातें भी की । दूसरे दिन सुबह देवलोग गीत-नृत्य में मग्न थे तब भीमसेन छुपकर बाहर निकल आया । वहाँ से सिंहलनगर के मुख्यनगर क्षितिमंडन नगर में पहुँचा । क्षितिमंडननगर में वह एक पंसारी की दुकान में काम करने लगा । वहाँ पर भी उसकी चौर्यवृत्ति की जानकारी होने से सैनिकों ने उसको निकाल दिया । ___ वहाँ से वह नाव में बैठकर पृथ्वीपुर नाम के नगर में आया । वहाँ भीमसेन ने एक परदेशी को अपनी व्यतीत व्यथा सुनाई । परदेशी ने उसकी व्यथा को सुन उसको आश्वासन दिया और वहाँ से दोनों लोग रोहण पर्वत की ओर चल दिए । रोहण पर्वत की ओर जाते हुए मार्ग में उन्होंने जटिल नाम के मुनि को देखा । जटिल मुनि ने भी वहाँ शिष्य जांगल को देख पूछा कि-'तू यहाँ क्यों आया है ? शिष्य ने कहा-"मैं शत्रुजय और उज्जयंत में जिनपूजा करके आया हूँ। उसने शत्रुजय तीर्थ की महिमा बतलाकर अशोकचंद्र की बात कही । चंपानगरी में अशोकचन्द्र नाम का दरिद्र क्षत्रिय रहता था । एक बार अशोकचंद्र रैवताचल की ओर चल दिया । वहाँ कुछ समय तक अंबादेवी की पूजा करके वापिस अपने नगर में आया । एकबार अशोकचंद्र को विचार आया कि, देवी अंबिका की कृपा से यह सब जो मुझ को प्राप्त हुआ है और मैं उसका स्मरण भी नहीं करता हूँ ऐसे मुझ पापी को धिक्कार हो । ऐसा विचार करके एक संघ तैयार किया और शत्रुजय पर्वत की और चल दिया । वहाँ जाकर जिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352