Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 286
________________ वाग्भट द्वितीय का गुणविचार २६१ अर्थात्, जहाँ मन से अतिशय आनन्द द्रवित हो उसे माधुर्य कहते हैं । शृंगार, शान्त एवं करुण में उसका उत्तरोत्तर आधिक्य प्रतीत होता है । शृंगार, शान्त तथा करुण में जो माधुर्य रहता है उसे उदाहृत करते हुए वाग्भट ने वृत्ति में क्रमशः ये श्लोक दिये हैं । १. "प्रियतमावदनेन्दु० . . .' इत्यादि । २. 'यैः शान्तरागरुचिभिः . . .' इत्यादि । ३. 'गृहिणी सचिवः . . .' इत्यादि । इससे प्रतीत होता है कि शृंगार से उन्हें मिलन-शृंगार अभिप्रेत होगा, क्योंकि, उन्होंने विप्रलंभशृंगारविषयक उदाहरण अलग से नहीं दिया है । मम्मट'ने मिलनशृंगार, करुण, विप्रलंभशृंगार तथा शान्त इस क्रम से माधुर्य की अधिकाधिक उत्कृष्टता स्वीकार की है जब कि हेमचन्द्र ने मिलनशृंगार, शान्त, करुण तथा विप्रलंभशृंगार में माधुर्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष वर्णित किया है । विविध रसों में माधुर्य की स्थिति का निरूपण वाग्भट ने हेमचन्द्र के अनुसार किया हो ऐसा लगता है परन्तु उन्होंने विप्रलंभशृंगार का निर्देश नहीं किया है । ९, ओजस् : वाग्भट के इस गुण का स्वरूप मम्मट-हेमचन्द्र की परम्परा के अनुसार है । उन्होंने ओज को दीप्ति के कारणरूप माना है और उसका सबसे अधिक प्रकर्ष रौद्र रस में स्वीकार किया है । वे कहते हैं : दीप्तिहेतुरोजः । वीरबीभत्सरौद्रेषु क्रमेण विशेषतो रम्यम् ।३३ अर्थात्, दीप्ति के कारणरूप ओजोगुण वीर, बीभत्स तथा रौद्र में क्रमशः उत्तरोत्तर अधिक चमत्कृतिपूर्ण होता है। मम्मट - हेमचन्द्र में प्राप्त इस बात का स्पष्ट स्वीकार वाग्भट में प्रतीत होता है । वृत्त में ओजोगुण के अधिकाधिक प्रकर्ष के जो उदाहरण प्रस्तुत किये है वे इस प्रकार १. 'शैलोत्तुङ्गतरङ्गवेगगमन०. . .' इत्यादि । २. 'उत्कृत्योत्कृत्य कृत्तिं . . .' इत्यादि । ३. 'चञ्चद्भुजभ्रमित०. . . .' इत्यादि । यहाँ क्रमशः वीरगत ओजस्, बीभत्सगत ओजस् एवं रौद्रगत ओजस् का निरूपण है । १० प्रसाद : प्रसाद का लक्षण देते हुए वाग्भट कहते हैं कि, झगित्यर्थार्पणेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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