Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 272
________________ सुदर्शनोदय महाकाव्य की सूक्तियाँ और उनकी लोकधर्मिता कि इस काव्य में वर्णित क्षुल्लिका का ब्रह्मचर्य, उपवास व सत्यपालन तथा मनोरमा के अन्तःकरण की पवित्रता, प्राणिमात्र के प्रति उनका मैत्रीभाव, कासाणिकचित्त, गुणाकर्षण, देवों के प्रति प्रणिपात, सत्संग व भक्ति प्रभृति गुण समाज को गहरे रूप से प्रभावित जरूर करेंगे । उदाहरण के लिए निम्नलिखित श्लोकों व तदङ्गभूत सूक्तियों में पुरुषार्थचतुष्टय व अहिंसा को रेखाङ्कित किया गया है, जिससे देश व समाज की असंख्य समस्याएँ स्वतः हल हो जाएँगी । यथा हे वत्स त्वञ्च जानासि पुरुषार्थचतुष्टये । धर्म एवाद्य आख्यातस्तं विनाऽन्ये न जातुचित् ॥ १३ मा हिंस्यात् सर्वभूतानि : इसी प्रकार ग्रन्थकार ने मर्मोच्छेदक व निन्दाजन्य वचन का निषेध, अदत्त वस्तु को न लेने, परोत्कर्ष से असहिष्णुता न करने, मांस भक्षण न करने तथा मद-मोह-मदिरा - भाँग व तम्बाकू आदि नशीली वस्तुओं दूर रहकर विनम्र भाव से वृद्धाज्ञा का पालन करने पर खूब जोर दिया है । उनके अनुसार सभी के प्रति उपकारभाव रखना ही धर्म है । यथा- १४ सर्वेषामुपकाराय मार्ग: साधारणो ह्ययम् । युवाभ्यामुररीकार्यः परमार्थोपलिप्सया ॥१५ सुदर्शनोदय महाकाव्य में अर्थान्तरन्यास के माध्यम से कविप्रवर ज्ञानासागर ने ऐसे गम्भीर विषयों का प्रतिपादन किया है, जो संसार की वर्तमान व भावी पीढ़ी के लिए अनुकरणीय है और रहेगी । यथा २४७ दण्डं चेदपराधिने न नृपतिर्दद्यत्स्थितिः का भवेत् । १६ अर्थात् राजा अपराधी को दण्ड न दे, तो लोक की मर्यादा भला कैसे रहेगी और लोक मर्यादा के सुरक्षित न रहने पर समाज व राष्ट्र में दुर्व्यवस्था फैलेगी, जिससे जनजीवन असुरक्षित हो जाएगा । इसी प्रकार उनकी अन्य सूक्तियाँ भी जहाँ एक ओर काव्य की शोभा में वृद्धि करती हैं, वहीं सम्पूर्ण लोक को जीवन-दर्शन का ज्ञान भी कराती हैं, जैसे शत्रुश्च मित्रं च न कोऽपि लोके हृष्यज्जनोऽज्ञो निपतेच्य शोके" । Jain Education International अर्थात् अज्ञानी व्यर्थ ही किसी को शत्रु व किसी को मित्र मानकर सुखी - दुःखी होते । वस्तुतः संसार में न कोई किसी का मित्र है और न शत्रु । ग्रन्थ के कृती विद्वान् ज्ञानसागर जी यह मानते हैं कि जीवों का सुख - दुःख स्वकृत पापपुण्य का परिणाम है । इसीलिए ज्ञानी न सम्पत्ति से हर्षित होता है और न विपत्ति से दुःखी । तात्पर्य यह कि मनुष्य को सदा समभाव रहना चाहिए । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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