Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
सकता है । अर्थात् कोई नहीं । इस सूक्ति के माध्यम से कवि ने काम के अबाध प्राबल्य की
ओर संकेत किया है और साथ-साथ यह भी बताया है कि काम की इस चुनौती को जो स्वीकार कर ले, वह कोई सामान्य नहीं बल्कि असाधारण महापुरुष कहा जाएगा, कहना न होगा कि इस काव्य के नायक सुदर्शन ऐसे ही अलौकिक व्यक्तित्व के धनी महापुरुष हैं, जिन्हें वासना के कीचड़ में न कपिला गिरा सकी और न ही इनके व्यक्तित्व को रानी अभयमती ही पङ्किल कर सकी । यहाँ तक कि उन्होंने कपिला से अपने को नपुंसक बताया तथा रानी द्वारा बार-बार उत्तेजित किये जाने पर वे वैराग्यभाव को प्राप्त होते चले गये ।
प्राकाशि यावत्तु तयाऽथवाऽगः प्रयुक्तये साम्प्रतमङ्गभागः ।
तथातथा प्रत्युत सम्विरागमालब्धवानेन समर्त्यनागः ॥ इस प्रकार सुदर्शन की संयतेन्द्रियता व एकपत्नीव्रत्व भारतीय समाज के लिए सच्चरित्रता का जीवन्त उदाहरण है, जिसके अनुकरण से राष्ट्र, समाज व मानवता की रक्षा हो सकती है। क्योंकि सुदर्शन मात्र अपनी स्त्री में सन्तुष्ट रहनेवाले महान् जितेन्द्रिय पुरुष हैं -
जितेन्द्रियो महानेष स्वदारेष्वस्ति तोषवान् । समाज को शिक्षा :
इस ग्रन्थरत्न की सूक्तियों द्वारा कवि ने समाज को अनेकविध उपदेशों से मण्डित किया है । कहीं निम्न आचार वाले पुरुषों को धिक्कारा है-धिग्दुरितैकधनीर तो कहीं स्रियों की अचिन्त्य चेष्टाओं को रेखाङ्कित किया है-चेष्टा स्त्रियां काचिदचिन्तनीया
जिससे लोग दुष्टाचारियों व वासनापीड़ित कामिनियों से सतत सतर्क रहें ।
इसी प्रकार सूक्ति के द्वारा उन्होंने यह भी बताने का प्रयत्न किया है कि मनुष्य को बाह्य समीक्षा की अपेक्षा आत्मसमीक्षा पर बल देना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से शत्रुता कम होगी तथा स्वयं में सुधार होगा । और साथ ही आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति बढ़ेगी । यथाराजनिरीक्ष्यतामित्थं
गृहच्छिद्रं परीक्ष्यताम्१२
अर्थात् हे राजन् ! अपने घर को, घर के छिंद्र या दोष को देवों और यथार्थ रहस्य का निरीक्षण करो । तुम जिस सुदर्शन को मृत्युदंड देने जा रहे हो, वह निर्दोष जितेन्द्रिय है ओर तुम्हारी रानी व्यभिचारिणी है। सन्तोष और त्यागादि का महत्त्व :
महाकवि ज्ञानसागर ने त्याग, दया, क्षमा, शील, सन्तोष, अहिंसा, सत्य, शुद्धाहार एवं परस्त्री-परपुरुष, संयोग निषेध आदि विषयों पर अतिशय बल दिया है । इसीलिए उन्होंने अपनी कृति में पात्रों को इन मानवीय मूल्यों का धनी बताने का प्रयास किया है। यही कारण है कि क्षुल्लिका, और मनोरमा इन उपर्युक्त गुणों की मूर्तिमान् स्वरूप हैं । कवि ज्ञानसागर का मानना है
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