Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 279
________________ २५४ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature यो गंगा दधर्दी योऽत्र हरिणाऽऽधारेण विश्रूयते यो नागेन विराजते कलिमलं योऽसौ निहन्तुं क्षमः । यस्येयं वरवारवृतितरमला यद्यत् प्रभूतं शिवं ___ तं ब्रह्मा मुरजिन्मृडो दिनकरश्च्यन्द्रोऽस्तु सौख्याय वः ॥ बारहवीं शताब्दी में हेमचन्द्रसूरि के शिष्य वर्धमान सागरमणि के समकालीन प्रभासूरि ने एक अभूतपूर्व पद्य की रचना की एवं उसके सौ अर्थों को अपनी स्वोपज्ञ वृत्ति में व्याख्यायित किया है । वह पद्य इस प्रकार है कल्याणसारसविता न हरेक्ष मोह कान्ताम्भारणसमानजयाद्यदेवा धर्मार्थकामदमहोदयवीरधीर सोमप्रभाव परमागम सिद्ध सूरे ॥ इसके सौ अर्थ चौबीस तीर्थंकरों से सम्बन्धित तथा सिद्ध, सूर्य, उपाध्याय, मुनि गौतम, सुधर्मा आदि है । पन्द्रहवीं शताब्दी में कविलाभविजय ने एक पद्य के पाँचसौ अर्थ किये है । ग्रन्थ अद्यावधि उपलब्ध नहीं है । वह पद्य इस प्रकार है - तमोदुर्वाररागादि वैरिवारानिवारणे । अर्हतायोगिनाथाय महावीराय तायिने ॥ मानसागर गणि ने "रातार्थ विवरण नामक" ग्रन्थ की रचना की । "विविधार्थमयविवरण" में सोमतिलकसूरि ने गायत्री मन्त्र पर श्लेष के माध्यम से अर्हत प्रजापति, शंकर, पार्वती, राधा, विष्णु आदि की स्तुतिरूप में विवरण लिखा है ।। "पंचविंशति सन्धान काव्य" में श्री सोमतिलकसूरिने "श्री सिद्धार्थ नरेन्द्र" से प्रारम्भकर बारह पद्यों में वीरजिनेन्द्र स्तवन लिखा है । इसके प्रथम एवं अन्तिम पद्य को छोड़कर अन्य प्रत्येक पद्य के पच्चीस-पच्चीस अर्थ है जिनमें चौबीस अर्थ ऋषभ आदि चौबीस तीर्थकरों से सम्बद्ध हैं । एवं पच्चीसवाँ अर्थ कर्ता के गुरुपक्ष की परिपुष्टि करता है जिसके द्वारा कवि की गुरुभक्ति प्रकट होती है । सारग शब्दार्थमय "श्रीमहावीर जिनस्तवन" श्रीविजयगणि ने लिखा है । यह अष्टपद्यात्मक स्तवन है । इसमें सारंग शब्द अनेकार्थक है । "पराग शब्द गर्भजिनस्तव" में श्रीलक्ष्मीकल्लोल गणि ने "पराग" शब्द के एकसौ आठ (१०८) अर्थों में जिनेन्द्र देव की स्तुति की है । मुनिवर पं० गुणरत्नजी ने पंचनमस्कार मन्त्र के प्रथमपद्य "णामो अरिहन्ताणं" की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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