Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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आचार्य रामचन्द्र सूरि और उनका कर्तृत्व
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'उपाश्रयाश्रितस्यास्य महापीडापुरस्सरम् । व्यनशद् दक्षिणं चक्षुः------|| कर्म प्रामाण्यमालोच्य ते शीतीभूतचेतसः ।
स्थितास्तत्र चतुर्मासीमासीनास्तपसि स्थिरे ।' कभी चातुर्मास्य के अवसर पर आचार्य रामचन्द्र सूरि की आँख दुखने लगी । बहुत अधिक पीडा देने के पश्चात् उनकी दाहिनी आँख से ज्योति समाप्त हो गयी । उन्होंने उसे अपने कर्मों का दोष मान कर अपनी तपस्या में स्थिर रहते हुए चातुर्मास्य को वहीं पूर्ण किया ।
ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि नेत्रविकार की यह घटना उनके द्वारा साहित्यरचना में अनेक ग्रन्थों के पूर्ण होने के पश्चात् हुई । इस घटना के बाद उनकी जीवनपद्धति और रचनाप्रवत्ति में पर्याप्त परिवर्तन आया । उसके बाद उन्होंने अन्य बडे साहित्यिक ग्रन्थ अथवा शास्त्रीय ग्रन्थ की रचना करनी छोड़ दी और धर्मकृत्यों में सर्वथा समर्पित हो गए । जिनस्तुतियों की रचनाप्रवृत्ति बढ़ी और उन्होंने अनेक लघु जिनस्तवों का निर्माण किया । उनके द्वारा प्रणीत प्रायः सभी स्तवों में दृष्टिदान की प्रार्थना पायी जातो है । 'नेमिस्तव के अन्त में उन्होंने लिखा
'नेमे ! निधेहि निशितासिलताभिराम ! चन्द्रावदातमहसं मयि देव ! दृष्टिम् । सद्यस्तमांसि विततान्यपि यान्तु नाश
मुज्जृम्भतां सपदि शाश्वतिक: प्रकाशः ॥' इसी प्रकार 'षोडशषोडशिका' के अन्त में भी दृष्टिदान की प्रार्थना की गयी है ।
'स्वामिन्ननन्तफलकल्पतरोऽतिराम । चन्द्रावदातचरिताञ्चितविश्वचक्र ! शक्रस्तुताघ्रिसरसीरुह ! दुःस्थसाथै
देव ! प्रसीद करुणां कुरुं देहि दृष्टिम् ॥' यद्यपि 'प्रभावकचरित' के अनुसार रामचन्द्र की दाहिनी एक ही आँख के नष्ट होने का उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु स्तवों में की गयी दृष्टिदान की प्रार्थनाओं को देखने से स्पष्टतः प्रतीत होता है कि उनकी एक ही नहीं अपितु दोनों आँखें चली गयी थी और वे पूर्णतः अन्धे हो गए थे । 'व्यतिरेकद्वात्रिंशिका' के अन्त में उन्होंने अपनी दैवात्प्राप्त अन्धता और गलत्तनुता (वार्धक्य) का स्पष्ट कथन किया है :
'जगति पूर्वविधेर्विनियोगजं विधिनतान्ध्यगलत्तनुतादिकम् । सकलमेव विलुम्पति यः क्षणात् अभिनवः शिवसृष्टिकर: सताम् ॥'
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