Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
अणहिलपुरपट्टन राज्य के उत्तराधिकारी के चयन के सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र द्वारा राजा कुमारपाल को दिए गए परामर्श के कारण हेमचन्द्र के साथ ही रामचन्द्र का जीवन भी सङ्कटापन्न हो गया । वह दुर्वृत्त इस प्रकार कहा जाता है :
आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य राजा कुमारपाल को सन्तान के रूप में मात्र एक पुत्री ही थी । अतः राज्य के उत्तराधिकारी के दो ही विकल्प थे । प्रथम तो कुमारपाल का दौहित्र प्रतापमल्ल और द्वितीय था कुमारपाल का भाई अजयपाल । राजा ने अपने गुरु आचार्य हेमचन्द्र से परामर्श किया कि इन दोनों में से योग्यतर कौन है ? और किसे राजसिंहासन देना ऊचित होगा ? परामर्श के समय वहाँ राजा का मित्र वणिक्, 'वणाह आभड़' भी बैठा था । उसका अभिमत अजयपाल को शासनसूत्र सौंपने के पक्ष में था किन्तु उसके स्वभाव से परिचित आचार्य हेमचन्द्र ने निष्पक्ष भाव से धर्म और प्रजा के संरक्षण की हितदृष्टि से प्रतापमल्ल को उत्तराधिकारी देना उचित बताया । आचार्य के साथ उनका एकशिष्य बालचन्द्र भी था । बालचन्द्र ने यह बात अजयपाल को बता दी । आचार्य द्वारा अपने विरोध की बात सुनकर अजयपाल अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और वह आचार्य तथा उनके शिष्यों का घोर शत्रु हो गया । इसके कुछ ही दिनों बाद आचार्य हेमचन्द्र का सहसा निधन हो गया । उस समय उनकी आयु तिरासी वर्ष की थी । उनके निधन के पीछे अजयपाल का षड्यन्त्र शङ्कित है । आचार्य के निधन के बत्तीसवें दिन राजा कुमारपाल भी अजयपाल द्वारा विष देकर इस संसार से विदा कर दिए गए । अजयपाल ने स्वयं राज्यसिंहासन पर · अधिकार कर लिया । राजा बनते ही उसने आचार्य के पट्टशिष्य और उत्तराधिकारी आचार्य रामचन्द्र पर अत्यन्त क्रूर अत्याचार करने आरम्भ कर दिए । इस दुर्वृत्त का उल्लेख अनेक जैनग्रन्थों में प्राप्त होता है । राजशेखरसूरि विरचित 'प्रबन्धकोष' (१३४८ ई०) में इस घटना का उल्लेख इस प्रकार किया गया है ।
‘एवं व्रजति काले राजा कुमारपालदेवः श्रीहेमश्च वृद्धौ जातौ । श्रीहेमसूरिंगच्छेविरोधः । रामचन्द्र गुणचन्द्रादिवृन्दमेकतः । एकतो. बालचन्द्रः । तस्य च बालचन्द्रस्य राजभ्रातृव्येनाजयपालेन सह मैत्री । एकदा प्रस्तावे राज्ञो गुरूणाम् आभडस्य च रात्रौ मन्त्रारम्भः । राजा पृच्छति-"भगवन्' । अहमपुत्रः, कमहं स्वपदे रोपयामि ?" गुरवो ब्रुवन्ति-"प्रतापमल्लं दौहित्रं राजानं कुरु धर्मस्थैर्याय, अजयपालात्तु त्वस्थापितधर्मक्षयो भावी ।" अत्रान्तरे आभङ: प्राह-"भगवन् । यादृशस्तादृशः, आत्मीयो भव्यः ।" पुनः श्रीहेम:-"अजयपालं राजानं मा कृथाः सर्वथैव ।" एवं मन्त्रं कृत्वा उत्थितास्त्रयः । स च मन्त्रो बालचन्द्रेण श्रुतः अजयपालाय च कथितः । अतो हेमगच्छीयरामचन्द्रादिषु द्वेषः आभडे तु प्रीतिः । हेमसूरेः स्वर्गगमनं जातम् । ततो दिनद्वात्रिंशता राजा कुमारपालेऽजयपालदत्तविषेण परलोकमगमत् । अजयपालो राज्ये निषण्णः । श्रीहेमद्वेषात् रामचन्द्रादिशिष्याणां तृप्तलोहविष्टरासनपतितया मारणं कृतम् ।'
आचार्य रामचन्द्र सूरि के जीवन का अन्तिम भाग अत्यन्त दुःखमय रहा । वे अन्धे हो गए थे । 'प्रभावकचरित' के अनुसार, उनकी दाहिनी आँख चली गयी थी :
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