Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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संस्कृत महाकाव्यों में जैनियों का योगदान
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नेमिनाथमहाकाव्य की भी रचना की थी । इनके ही समकालीन गुजरात के किसी राजा के आश्रित रहे देवप्रभसूरि महाभारत के १८ पर्यों की कथावस्तु को लेकर उतने ही सर्गों में पाण्डवचरित
की रचना किये थे । जबकि माणिक्यचन्द्रसूरि (नेमिचन्द्र एवं सागरेन्दु के शिष्य) का दशसर्गात्मक पार्श्वनाथचरित एवं अहोबलसूरि का यतिराजविजय उत्कृष्ट रचनाओं में परिगणित है । कहते हैं अकबर के ३३ हिन्दूसभासदों में से एक पद्मसुन्दर, जो जैनसम्प्रदायावलम्बी थे-संस्कृत के भविष्यदत्तचरित, रायमल्लाभ्युदयकाव्य एवं पार्श्वनाथमहाकाव्य के रचयिता है और ये जोधपुरनरेश मालवदेव द्वारा सम्मानित थे । यह भी कहा जाता है कि जैन विद्वान् हीरविजय जी जब बादशाह अकबर से मिले थे तो, उन दिनों आप का देहान्त हो चुका था ।।
अणहिल्लपुर के पल्लीवालकुल में उत्पन्न महाकवि रामन बहुशास्त्रज्ञ थे, इन्होंने ही नेमिचरितमहाकाव्य की रचना की थी और तिलकमंजरीकथासार के सुप्रसिद्धरचयिता धनपाल भी इन्हीं के पुत्र थे । वर्द्धमानचरित के कर्ता असंग नागानन्दिन् (सं० १६७९) के शिष्य थे और इनसे प्राचीन स्थित रहे मुनि भद्रसूरि, जिनका मुनि देवसूरि भी नामान्तर था (सं० १४३९) शान्तिनाथमहाकाव्य के रचयिता थे । पाँच प्रकाशों में रचित प्रबन्धचिन्तामणि के रचयिता से भिन्न और अर्वाचीन मेरुतुंगाचार्य चार सर्गों में प्रविभक्त नेमिनाथचरित परक जैन मेघदूत के रचयिता है । इस काव्य में कुल १९६ श्लोक़ है और इसकी कथावस्तु तथा विक्रमकविकृत जैन नेमिदूत की कथावस्तु दोनों एक है अर्थात् दोनों ही काव्यों में नेमिकुमार की प्रव्रज्या लेने पर राजमती उनके पास मेघ को दूत बनाकर अपनी विरह दशा का सन्देश भेजती है । महापुरुषचरित महाकाव्य के रचयिता भी यही है, परन्तु कुछ लोग मेघदूतकार मेरुतुंग को महापुरुषचरितकार से भिन्न मानते हैं, परन्तु अधिकांश जन दोनों को तो अभिन्न मानते हैं, पर भोजप्रबन्धनामक चम्पूकार को इनसे भिन्न कहते हैं ।
भट्टोजिदीक्षित की चर्चा करने वाले जैनमहाकवि हरिदत्तसूरि निश्चय ही १७वीं शतक के पश्चात् किंवा १८०० ई० के आसपास स्थित रहे होंगे । इन्होंने राम और नल के चरित्रों का श्लेष वर्णन के द्वारा "राघवनैषधीयम्" महाकाव्य की जो रचना की है, वह सुतरां मनोहारी और विलक्षण है।
हुंकारवंश के सांगण के पुत्र विक्रम, दिगम्बरसम्प्रदाय के आचार्य थे, उन्होंने एक चरितमहाकाव्य की रचना की थी, जिसकी केवल चर्चा मिलती है। इनकी दूसरी रचना नेमिचरित है तो अवश्य पर वह महाकाव्य नहीं है और नेमिदूत इनका दूतकाव्य है । जबकि १५वीं १६वीं शताब्दी के मध्य में ज्ञानभूषण के शिष्य शुभचन्द्र ने २५-२६ ग्रन्थों की रचना की थी । इन ग्रन्थों में चन्द्रप्रभचरित, पद्मनाभचरित, जीवनधरचरित आदि प्रमुख महाकाव्य है । इनके बाद १७वीं शतक में यशोधरचरित और सुलोचनाचरितकार वादिचन्द्र आते है । आप प्रभाचन्द्र के शिष्य और कमलसागर कीर्तिसागर के गुरु थे । लगभग इसी समय कृपाविजय के शिष्य मेघविजय ने पंचाख्यानोद्धार, मेघदूतसमस्या लेखकाव्य, सप्तसन्धानमहाकाव्य एवं देवनन्दाभ्युदयमहाकाव्य की रचना की है । आप न्याय-व्याकरण-ज्योतिष और साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् ही नहीं व्यवहार कुशल : भी थे ।
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