Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
________________
आचार्य रामचन्द्र सूरि और उनका कर्तृत्वं
२२७
है। उन्होंने पण्डितराज जगन्नाथ जैसा दम्भ तो नहीं प्रकट किया है किन्तु उपर्युक्त उक्तियों में उनका कर्तृत्व एवं पाण्डित्य विषयक अहङ्कार अवश्य झलकता है । उन्होंने न केवल यत्र-तत्र अपनी स्वतन्त्ररचनागरिमा का प्रख्यापन किया है अपितु ऐसे चोर कवियों की भी खबर ली है जो दूसरे कवियों के पद-पदार्थ (भाषा-भाव) का बड़ी बारीकी से अपहरण कर उसे अपने मनोनुकूल ढाल कर प्रयोग करते हैं । उनकी कई कृतियों में एतद्विषयक निन्दा प्राप्त होती है । 'नाट्यदर्पणविवृत्ति' के प्रारम्भ में रामचन्द्र कहते हैं :
"अकवित्वं परस्तावत् कलङ्कः पाठशालिनाम् ।
अन्यकाव्यैः कवित्वं तु कलङ्कस्यापि चूलिका ॥" इसी ग्रन्थ के अन्त में भी उन्होंने इसी भाव को दुहराया है :
"परोपनीतशब्दार्थाः स्वनाम्ना कृतकीर्तयः ।
निबद्धारोऽधुना तेन को नौ क्लेशमवेष्यति ॥" 'कौमुदीमित्राणन्द' प्रकरण की प्रस्तावना में भी किञ्चित्परिवर्तन के साथ उन्होंने यही कहा
"परोपनीतशब्दार्थाः स्वनाम्ना कृतकीर्तयः ।।
निबद्धारोऽधुना तेन विश्रम्भस्तेषु नः सताम् ॥" रामचन्द्र सूरि केवल काव्यरचना के क्षेत्र में ही स्वतन्त्रता के पक्षपाती न थे अपितु जीवन में भी वे परम स्वातन्त्र्यप्रेमी रहे । अपने जीवन की इस विशिष्ट शैली का परिचय उन्होंने अपनी कृतियों में अनेकत्र दिया है । 'नलविलास' (२.२) में वे कहते हैं :
"काव्यं चेत्सरसं किमर्थममृतं वक्त्रं कुरङ्गीदृशां चेत् कन्दर्पविपाण्डुगण्डफलकं राकाशशाङ्गेन किम् ? स्वातन्त्र्यं यदि जीवितावधि मुधा स्वर्भूर्भुतो वैभवे
वैदर्भी यदि बद्धयौवनभरा प्रीत्या सरत्याऽपि किम् ? ॥" यहाँ रामचन्द्र ने जीवनपर्यन्त स्वतन्त्र रहने के समक्ष त्रैलोक्य वैभव को भी तुच्छ बताया - है। 'नलविलास' (६.७) में ही पुनः उन्होंने अपनी स्वतन्त्रता की उत्कट अभिलाषा की अभिव्यक्ति की है :
'अनुभूतं न यद् येन रूपं नातैति तस्य सः ।।
न स्वतन्त्रो व्यथां वेत्ति परतन्त्रस्य देहिनः ॥' स्वातन्त्र्य की जैसी प्रबल इच्छा उन्होंने 'जिनस्तोत्र' में व्यक्त की है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ
'स्वतन्त्रो देव भूयासं सारमेयोऽपि वर्त्मनि । मा स्म भूवं परायत्तास्त्रिलोकस्यापि नायकः ॥'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org