Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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संस्कृत महाकायों में जैनियों का योगदान ११. मुनिभद्रसूरि (१४वीं श० पूर्वार्द्ध) :
.. १४वों शतक के पूर्वार्द्ध में उत्पन्न मुनिभद्रसूरि, आचार्य गुणभद्रसूरि के शिष्य थे तथा ये दिल्ली के बादशाह फीरोजशाहतुगलक (१३५१-१३८८) के द्वारा सम्मानित थे । जैसा कि इन्होंने स्वयं वर्णन भी किया है-"तच्छिष्यो मुनिभद्रसूरिरजनि स्याद्वादि सम्भावनः । श्रीपेरोजमहीमहेन्द्रसदसि प्राप्तप्रतिष्ठोदयः ॥" । न्याय-व्याकरण-साहित्य आदि विषयों के मर्मज्ञ आ० सूरि ने मुनिदेवसूरि के प्राकृतभाषाबद्ध शान्तिनाथचरित को आदर्श मान कर उसी शीर्षक से १९ सर्गों में एक महाकाव्य की रचना की है, जिसमें कुल ६२७२ श्लोक पाये जाते हैं । यहाँ यह स्मर्त्तव्य है कि इसी शान्तिनाथचरित के नाम से सबसे पहले कवि असंग ने रचना की थी और उनके बाद काव्यप्रकाश के संकेतव्याख्याकार (११६० ई०) आ० माणिक्यचन्द्रसूरि, १३वीं शतक के अजितप्रभसूरि एवं आ० हेमचन्द्राचार्य वी. शतक के उत्तरार्द्ध ने भी इसी नाम से रचनाएँ की । १२. महाकविवादिराज :
महाभारत के टीकाकार दाक्षिणात्यवादिराज से आप भिन्न है किन्तु अश्वघोष कृत "राष्ट्रपाल" नाटक के व्याख्याकार से आप निश्चय ही अभिन्न है । षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वाद-विद्यापति आदि विरुद विभूषित दार्शनिक सार्वभौम वादिराज न केवल तार्किक वैदुष्य में अद्वितीय थे, बल्कि इनकी काव्यप्रतिभा भी अनुपम थी । तभी तो एकीभावस्तोत्र में आप लिखते हैं - "वैदिराजमनु शाब्दिकलोको वादिराजमनु तार्किकसिंहः । वादिराजजनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्यसहायः ॥" न्यायविनिश्चयविवरण और प्रमाणनिर्णय जैसे दार्शनिक ग्रन्थों के रचयिता वादिराज की साहित्यिकरचनाओं में पार्श्वनाथचरित महाकाव्य, यशोधर चरितकाव्य एवं एकीभावस्तोत्र मुख्य है । १२ सर्गों के पार्श्वनाथचरितमहाकाव्य में जैनधर्म के २३ वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ के सभी जन्मों का वर्णन, उनके चरित्र का व्याख्यान किया गया है। साथ ही बाह्य प्रकृति का चित्रण और मानवजीवनव्यापी सुखदुःख के उतार-चढाव का वर्णन करना कवि का वैशिष्ट्य रहा है ।
वादिराज इनका उपनाम था, मूलनाम कुछ और रहा होगा । ये श्रीपालदेव के प्रशिष्य, मतिसार के शिष्य और रूपसिद्धिकार मुनि दयापाल के सहपाठी थे । चालुक्यनरेश सिंहचक्रेश्वर जयसिंहदेव (श० सं० ९३८-९४५) के सभापद होने के कारण इनका समय दशवीं शताब्दी निश्चित करना उचित होगा ।
वीरसेन अथवा वीराचार्य के प्रधानशिष्य आचार्य जिनसेनस्वामी (शाके ७०५, ७८३ ए० डी०) जैन साहित्य में सुप्रसिद्ध है । इन्होंने ही आदिपुराण, हरिवंशपुराण आदि के साथ साथ पाश्र्वाभ्यदयकाव्य की रचना की है। जिनसेन, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक के राष्ट्रकूटवंशीय शासक अमोघवर्ष के गुरु थे, जो ८७१ वि० सं० में राज्यासीन हुए थे । जयधवलाटीका और गीतिकाव्य आदि जिनसेन की सुप्रसिद्ध रचनाएँ हैं । इन्होंने जैन धर्म के सभी शलाकापुरुषों के जीवनवृत्त को संस्कृतपद्यों में लिपिबद्ध करने के उद्देश्य से जिस पुराण की रचना शुरु की थी, दुर्भाग्यवश बीच में ही पारलौकिकगमन हो जाने के कारण उस अधूरे ग्रन्थ को पूरा किया इनके ही शिष्य आ० गुणभद्र ने । इन्होंने ८९७ ई० में उत्तरपुराण नाम से जिस ४७ पूर्वो एवं १२००० श्लोकों
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