Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
View full book text
________________
जैनों की सैद्धांतिक धारणाओं में क्रम-परिवर्तन
१८७
५. सात तत्त्वों एवं नव पदार्थों का क्रम
आगमों और कुंदकुंद के ग्रंथों में नौ, दस, ग्यारह या बारह तक तत्त्व बताये गये हैं जिनका श्रद्धान और ज्ञान अतिशय चारित्र का कारण होता है । लेकिन इनका क्रम जैनेतर तत्त्वों के अधिक अनुरूप है और बौद्धों के, चार आर्यसत्यों के विपर्यास में, पंच-युगली सत्यों के अनुरूप है । क्या तत्त्व योजना जैनों की अपनी मौलिक नहीं है ? इनके क्रमों में बंध-मोक्ष अंत में आते हैं । संभवतः जैन ज्ञानों के विकास का आधार अन्य तंत्रों की मान्यताएँ रही हों । इनके प्राचीन क्रम पर इनका प्रभाव स्पष्ट व्यक्त होता है जैसा के. के. दीक्षित भी मानते हैं । इस क्रम के विपर्यास में, आ. उमास्वाति का तत्त्वक्रम है जहाँ न केवल तत्त्व संख्या ही निर्धारित की गई है, अपितु उनका क्रम भी परिवर्तित किया गया है। उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी इसे माना है। ऐसा प्रतीत होता है कि तत्त्वों का प्राचीन क्रम बौद्धिक दृष्टि से उतना मनोवैज्ञानिक और तर्कसंगत नहीं लगता । इसके विपर्यास में, उमास्वाति के क्रम में ये दोनों ही गुण पाये जाते हैं । यह व्यवस्थित भी है । उनके द्वारा इस क्रम परिवर्तन का आधार क्या रहा होगा, यह विचारणीय है । वन्य व्यत्ययों के विपर्यास में, यह व्यत्यय उनके स्वतंत्रचेता होने का प्रचंड संकेत देता है । ६. बारह भावनाओं और दस सत्यों का क्रम
__जैनों में अध्यात्मपथ की ओर बढ़ने के लिये ध्यान और भावनाओं का बड़ा महत्त्व है । विभिन्न ग्रंथों में उनके नामों और क्रमों में अंतर पाया जाता है । इनमें परिवर्तन भी पाया जाता है । स्थानांग (पेज १२२) एवं राजवार्तिक के विवरणों से दस सत्यों के नाम, क्रम और अर्थभेद स्पष्ट हैं । ७. नयों का क्रम
जैनों में नय सिद्धांत का क्रमिक विकास हुआ है, ऐसा प्रायः सभी विद्वान् स्वीकार करते हैं । बालचंद्र शास्त्री ने अपने ग्रंथ में (पेज १६७ पर) बताया है कि धवला (४/२) में नैगम, व्यवहार एवं संग्रह के रूप में नयों का क्रम है जबकि तत्त्वार्थ सूत्र (१.३३) में नैगम, संग्रह एवं व्यवहार नय का क्रम हैं । ८. इन्द्रिय और इंद्रिय विषयों का क्रम
जैन आचार-विचार में इन्द्रियजय का प्रमुख स्थान है । इन्द्रियाँ मन की सहायता से रागद्वेष का कारण और फलतः, कर्मास्रव और कर्मबन्ध की स्रोत हैं । भगवती २.१, स्थानांग, १०.२३
और प्रज्ञापना १५.१ में इन्द्रिय और इन्द्रिय-विषयों का क्रम श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन के आधार पर दिया गया है । मूलाचार गाथा १०९१ में भी इन्द्रियों के आकार का वर्णन इसी आधार पर दिया गया है । इसके विपर्यास में, दिगंबर ग्रन्थों एवं तत्त्वार्थसूत्र में यह क्रम स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्र के रूप में दिया गया है । प्रथम क्रम में सूक्ष्म से स्थूल की ओर वृत्ति का संकेत है जबकि द्वितीय क्रम में स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रवृत्ति का संकेत है । इन्द्रियाँ और उनके विषय मुख्यतः भौतिक जगत् से सम्बन्धित हैं । यहाँ स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रवृत्ति
Jain Education International
.
For Private &Personal Use Only
www.jainelibrary.org