Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
जैनों की वैज्ञानिकता के प्रतीक हैं । क्या हम अवैज्ञानिक या परम्परावादी है ? यदि ऐसा होता, तो हम प्रत्यक्ष के दो भेद, परमाणु के दो भेद और प्रमाण की संक्षिप्त एवं विस्तृत परिभाषा न कर पाते । ४. उत्तर प्रतिपत्ति और दक्षिण प्रतिपत्ति
उपरोक्त क्रम-व्यत्यय क्या उत्तर और दक्षिण-प्रतिपत्ति के परिणाम हैं ? या दिगंबर-श्वेतांबर मतभेदों के परिणाम है ? श्वेतांबर आगम तो मुख्यतः उत्तर प्रतिपत्ति को निरूपित करते हैं और दिगंबर ग्रंथ प्रायः दक्षिण प्रतिपत्ति के प्रतीक माने जाते हैं । इनके आचार्यों में प्राचीन काल में संपर्क के अभाव में यह व्यत्यय स्वाभाविक है । यह तो ऐसा खेल प्रतीत होता है जैसे एक चक्र की प्रारंभिक चर्चा अंतिम सदस्य के पास पहुँचने तक व्युत्क्रमित हो जाती है । ५. विकास का अंतिम चरण
उपरोक्त प्रकरण जैन तंत्र के सैद्धांतिक विकास के अंतिम चरणों के विकास के प्रतीक हैं । दसवीं सदी तक ऐसी स्थिति आ गई थी कि उसके बाद उनमें विकास संभव नहीं रहा । श्रद्धावाद का युग आ गया ।
___ इन बिन्दुओं के अतिरिक्त, इन क्रम-व्यत्ययों से यह संकेत तो मिलता ही है कि प्राचीन युग में विचार-संचरण या ग्रंथ-संसूचन की अल्पता थी, इसलिये विवरणों में एकरूपता संभव नहीं थी । इसीलिये अनेक प्रकार की असंगततायें आईं । श्रद्धावाद के युग में हमने उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया ।
__इनके और ऐसे ही अन्य प्रकरणों के कारण आज का बुद्धिवादी व्यक्ति सत्यासत्य निर्णय की अपनी क्षमता और तदनुरूप अनुकरणवृत्ति का उपयोग करना चाहता है । पर उसके सिर पर वीरसेन और वसुनंदि की तलवार लटकी हुई है-सत्यं किमिति सर्वज्ञ एव जानाति । हम तो भक्तिवादी हैं, हमें शंका या जिज्ञासा का अधिकार नहीं । इनके मत का अनुयायी बनकर हम अपनी जिज्ञासुवृत्ति को उपशांत बनाये नहीं रख सकते । ऐसे अवसरों पर हमें समन्तभद्र और सिद्धसेन भी याद आते हैं जो 'शास्त्रस्य लक्षणं परीक्षा' कहकर हमारा उत्परिवर्तन करते हैं । हमें इनका ही अनुसरण करना होगा और उपरोक्त विवरणों की संगतता को प्रतिष्ठित करना होगा । नई सदी सिद्धांत-प्रशंसन की नहीं, सिद्धांत-विश्लेषण की सदी होगी । इस विश्लेषण के आधार पर ही हम जैन सिद्धांतों पर पश्चिमी विश्लेषकों के अनेक आरोपों को निराकृत कर सकेंगे और जैन धर्म की विश्वस्तरीय प्रतिष्ठा को संवर्धित कर सकेंगे । वर्तमान संतों और विद्वानों से आशा है कि वे नयी पीढ़ी को ऐसे ऊहापोहों के विषय में मार्गदर्शन करेंगे ।
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