Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
हमारे धर्म में है- ऐसी अवधारणा ही भ्रान्त है । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि :
नाशाम्बरत्वे ना सिताम्बरत्वे, ना तर्कवादे न च तत्त्ववादे ।
. ना पक्षासेवाश्रयेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥ अर्थात् मुक्ति न श्वेताम्बर, न दिगम्बर, न तार्किक वाद-विवाद और न ही तत्त्वचर्चा से हो सकती है। किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्ति विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असंभव है । मुक्ति तो वस्तुतः कषायों से मुक्त होने में है, मुक्ति का आधार कोई धर्म, सम्प्रदाय अथवा विशेष वेशभूषा आदि नहीं है बल्कि जो समभाव की साधना, वीतराग दशा को प्राप्त करेगा, वही मुक्त होगा । वे कहते हैं :
सेयंबरो य आसंबरो य, बुद्धो य अहव अण्णो वा ।
समभावभावि अप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ॥ योगदृष्टिसमुच्चय में वे लिखते है :
सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथेतेती च ।।
शब्देस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एकं एवैवमादिभिः ॥८ अर्थात् सदाशिव, परमब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में केवल शब्द भेद है, उनका अर्थ तो एक ही है । जो उस परमतत्त्व की अनुभूति कर लेता है उसके लिए यह शब्दगत समस्त विवाद निरर्थक हो जाते हैं ।
आचार्य हरिभद्रसूरि में यद्यपि एक धार्मिक की श्रद्धा है, किन्तु वे श्रद्धा को तर्क विरोधी नहीं मानते हैं । वे स्पष्ट रूप से यह कहते है कि बुद्धि और तर्क का उपयोग केवल अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए ही नहीं किया जाना चाहिए, अपितु सत्य की खोज के लिए किया जाना चाहिए -
आग्रही वत ! निनीषति युक्तिं तत्र यत्र तस्य मतिर्निविष्टा ।
निष्पक्षपातस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र तस्य मतिरेति निवेशम् ॥९ __ अर्थात् आग्रही व्यक्ति अपनी युक्ति (तर्क) का भी प्रयोग वही करता है, जिसे वह सिद्ध अथवा खंडित करना चाहता है । जबकि अनाग्रही या निष्पक्ष व्यक्ति जो उसे युक्ति संगत लगता है, उसे स्वीकार करता है । सत्य के गवेषक एवं साधना के पथिकों को पूर्वाग्रहों से युक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जो भी युक्ति संगत लगे उसे स्वीकार करना चाहिए । इस प्रकार वे शुष्क ताकिर्क न होकर सत्यनिष्ठ तार्किक थे ।
अनेकान्तिक एवं समन्वयात्मक दृष्टि के कारण अन्य दर्शनों के गम्भीर अध्ययन की परम्परा का विकास सर्वप्रथम जैन दार्शनिकों ने किया है । ऐसा लगता है कि हरिभद्र ने समालोच्य प्रत्येक दर्शन का ईमानदारीपूर्वक गम्भीर अध्ययन किया था, क्योंकि इसके बिना वे न उन दर्शनों में निहित सत्यों को समझा सकते थे, न उनकी स्वस्थ समीक्षा ही कर सकते थे और न उनका
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