Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
२. विरोधमूलक
विरोध, विभावना, विशेष
अ० द० कार का विशेष प्राचीनों का दृढारोपरूपक प्रकार ही है ।
३. शृंखलामूलक ४. तर्कन्यायमूलक
नहीं है - अनुमान (आदर्श ?)
५. वाक्यन्यायमूलक
यथासंख्य, पर्याय, परिवृत्ति
हेतु का भामह की ही तरह अस्वीकार पर्याय अलंकार पर्यायोक्त जैसा ही है, परंतु क्रमशः निरूपण का कोई निर्देश नहीं ।
६. लोकन्यायमूलक नहीं है । ७. गूढार्थप्रतीतिमूलक जाति (स्वभावोक्ति), उदात्त
८. चित्तवृत्तिमूलक
रसित, प्रेमातिशय, ऊर्जा, समाहित संसृष्टि
इस वर्ग के 'सूक्ष्म' का उल्लेख नहीं । कदाचित् भामह का प्रभाव रहा होगा । स्वरूप भामह और दण्डी इत्यादि पूर्वाचार्यों जैसा ही है। भाव, उद्भेद, वलित, उपमारूपक, उत्प्रेक्षावयव तथा आशी, नामक ओर भी अलंकार है।
__ मिश्र
तालिका-: २
उपमाप्रकार
नाम
१. प्रतिवस्तूपमा, २. गुणकलिता, ३. असमा, ४. माला, ५. विगुणरूपा, ६. संपूर्णा, ७. गूढा, ८. शृंखला, ९. श्लेषा, १०. ईषद्विकला, ११. अन्योन्या, १२ प्रशंसा, १३. तल्लिप्सा, १४. निन्दिता, १५. अतिशया, १६. श्रुतिमीलिता, १७. विकल्पिता,
विशेषत: उल्लेखनीय प्रतिवस्तूपमा और अतिशया तथा अन्योन्या को अनुगामी प्रतिवस्तूपमा, अतिशयोक्ति और उपमेयोपमा नाम से स्वतंत्र अलंकार के रूप में निर्देश करते हैं । शृंखला ही रसनोपमा है। अ० द० की गुणकलिता गूढा और तल्लिप्सा । आदि उपमाभेद सर्वथा नवीन है । प्रतिवस्तूपमादि दण्डी में भी है। अ० द० की असमोपमा 'असम' नामक अलंकार के रूप में शोभाकर में तो थी ही,
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