Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
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अलंकारदप्पण : प्राकृत भाषा का एकमेव अलंकारग्रन्थ - परिचय और कुछ विशेषताएँ
पारुल मांकड
उपलब्ध संशोधन-सामग्री के अनुसार संस्कृत-अलंकारशास्त्र की धारा संभवत: भरतमुनि से भी पूर्व प्रवाहित हुई है । अन्य भारतीय प्रादेशिक भाषाओं में जो भी ग्रंथ अलंकारशास्त्र के संदर्भ में रचे गये हैं वे सभी संस्कृत-काव्यशास्त्र का ही अनुमोदन-अनुसरण और अनुप्रवर्तन करते
पालि और प्राकृत भाषा भी संस्कृत की ही तरह प्राचीन है, किन्तु यह साश्चर्य उल्लेखनीय है कि इन भाषाओं का अलंकारशास्त्र में बहुत कम योगदान रहा है । इस संदर्भ में प्राकृत में 'अलंकारदप्पण'' (= अ० द०) और पालि में 'सुबोधालंकार'२ नामक ग्रन्थ प्राप्त होते हैं ।
जैनाचार्यों के द्वारा काव्यशास्त्र में योगदान के अन्तर्गत 'अलंकारदप्पण' संभवतः प्रथम ग्रन्थ है । वैसे आचार्य हेमचन्द्र से जैनाचार्यों की लेखनी ने भी काव्यशास्त्र को अपनाना शुरु किया था, किन्तु हेमचन्द्र से ले कर भावदेव सूरि तक सभी ग्रन्थों की भाषा संस्कृत ही रही है । अलंकारदप्पण प्राकृत का तो एकमात्र अलंकारग्रन्थ है ही, किन्तु पूरा संभव है कि प्रस्तुत रचना भी जैनाचार्य की ही रही होगी, क्योंकि आरंभ में श्लेषालंकार के माध्यम से कविता की प्रशंसा और 'श्रुतदेवता' की वंदना की गई है ।
सुंदर पअअ-विण्णासं विमलालंकार-रेहिअ-सरीरं ।
सुइ-देविअं च कव्वं च पणविअ पवर-वण्णढणं ॥३
अ० द० के कर्ता के विषय में अद्यावधि कोई जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई है, फलत: अ० द० अज्ञातनामा कृति सिद्ध होती है । डॉ० ह० भायाणी का अनुमान है कि अ० द० पर रुद्रट के 'काव्यालंकार' का प्रभाव है, अतः यह ग्रन्थ ९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध का हो सकता है । अपभ्रंश भाषा के कवि स्वयंभू ने व्याकरण, छन्द और अलंकार पर अपनी लेखनी चलाई थी इसलिए प्रस्तुत रचना स्वयंभू कवि की हो सकती है । परंतु ठोस प्रमाणों के अभाव में निश्चित रूप से कुछ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता ।
अन्तरंग अभ्यास से पता चलता है कि अ० द० के कर्ता अलंकारपरंपरा के भारी प्रशंसक
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