Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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के असली पिता राजा जय और माता जयश्री उपस्थित थी । केरल राजा वनराज के साथ मुनि के समीप पहुँचा
और धर्मोपदेश सुनने लगा । इतने में सिंह पर बैठी हुई अत्यन्त रूपवती एक कन्या ने परिषद् में प्रवेश किया। सिंह के कन्धे से नीचे उतर कर उसने विनयपूर्वक मुनि को प्रणाम किया और उनका उपदेश सुनने लगी । सिंहवाहनी दिव्य स्वरूपा कन्या को देखकर सभी आश्चर्य से दिग्मूढ थे । राजा जय उस दिव्य कन्या को सस्नेह अनिमेष दृष्टि से देखने लगा । उपदेश समाप्ति के बाद राजा जय ने विनयपूर्वक केवली से पूछा - भगवन् ! अकस्मात् ही मेरी रानी की गोद में रहे हुए पुत्र का किसने अपहरण किया और वह पुत्र इस समय कहाँ और किस अवस्था में है ? एवं अपने दिव्य रूप से देवों को भी आश्चर्य चकित करने वाली तथा निर्भीक होकर सिंह पर आरूढ होकर आनेवाली यह कन्या कौन है ? तथा जिसे देखकर मेरा शरीर रोमांचित और हृदय
आनन्दित हो रहा है ऐसा यह बालक कौन है ? मुनिवर ने कहा - राजन् ! तुम्हारे पुत्र का केरल राजा ने अपहरण किया था और उसे अपने घर ले जाकर उसका नाम वनराज रखा । जिस बालक और बालिका को देखकर तुम्हारे मन में आनन्द हो रहा है ये ही तुम्हारे पुत्र और पुत्री है । जब रानी जयश्री सिंह के भय से गुफा से भाग रही थी उस समय उसे अपनी दूसरी सन्तान पुत्री का स्मरण ही नहीं रहा । वह उसे वही छोड़ अपने नवजात शिशु को लेकर भागी । मार्ग में प्रसव पीडा से पीडित वह एक वृक्ष के नीचे मूर्छित हो कर गिर पड़ी । बालक रुदन करता हुआ उसी के पास में पड़ा था। उधर केरल नरेश की दृष्टि रुदन करते हुए बालक पर पड़ी। उसने उसे उपनी गोद में उठा लिया । मूर्छित रानी को वही छोड़ वह अपने नगर लौट आया । बालक को वह अपनी रानी के पास ले आया और बोला- देवी ! वनदेवता ने हमें यह बालक दिया है। तुम इसे अपना ही पुत्र समझ कर इस का पालन करो । सुन्दर नवजात बालक को देख वह बड़ी प्रसन्न हुई और उसका लालन पालन करने लगी।
इधर सिंहनी बालिका को अपना ही बालक मान कर अन्य बच्चों के साथ उसे भी दूध पिलाने लगी । यह सिंहरथा कन्या अन्य सिंह शावकों के साथ वन में ही बडी होने लगी। एक बार आकाश मार्ग से जाते हुए चण्डवेग नामक खेचर की दृष्टि इस कन्या पर पड़ी। उसके दिव्यरूप से आकर्षित होकर वह नीचे उतरा
और कन्या को उठाकर अपने साथ ले जाने लगा। उस समय अमरचूल देव द्वारा नियुक्त रक्षक देवोने चण्डवेग के साथ युद्ध किया और उसे चंडवेग के चंगुल से मुक्त किया । हे राजन् ! देव द्वारा रक्षित यह कन्या तुम्हारी ही पुत्री है । मुनिवर से यह घटना सुनकर तथा अपने खोये हुए पुत्र-पुत्री को पुनः पाकर राजा जय और राणी जयश्री का हृदय आनन्द से पुलकित हो उठा । सिंहरथा कन्या ने तथा वनराज ने अपने असली माता-पिता को प्रणाम किया। केरल राजा भी यह वृत्तान्त सुन बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने राजा जय और राणी जयश्री को तथा कन्या को अपने घर आनेका अत्यन्त आग्रह किया । केरलराजा सभी को आग्रह पूर्वक अपने घर ले आया। कुछ दिन वहां रहकर, वनराज अपने माता पिता बहन और केरल राज को साथ में ले कर ससैन्य अपने नगर विशाला लौट आया । वहां शत्रु सामन्तों के साथ युद्ध कर उन्हें पराजित किया और अपने खोये हुए साम्राज्य को पुनः प्राप्त किया । केरल राजा ने अपनी पुत्री का विवाह वनराज के साथ कर दिया और समस्त राज्य को वनराज को सौपकर वह दीक्षित हो गया । राजा जय ने भी अपने साम्राज्य का उत्तराधिकारी वनराज को नियुक्त कर रानी जयश्री के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की।
वनराज अपने विशाल साम्राज्य का न्याय नीति पूर्वक पालन करने लगा । कालान्तर में उसे हरि नामक पुत्र हुआ । पुत्र के युवा होने पर उसे समस्त राज्य का भार सौपकर वह भी दीक्षित हो गया । हे राजन ! मैं
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