Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 12
________________ आठ वर्ष का हुआ तब कला सीखने के लिए उसे कलाचार्य के पास भेजा। उसने बुद्धि कौशल्य से अल्पकाल में ही कलाओं में निपुणता प्राप्त कर ली । युवावस्था में रूप गुण से सम्पन्न प्रभावती नामकी राजकुमारी के आ। राजा ने उसे यवराज पद पर अधिष्ठित किया। कालान्तर में रानी प्रभावती ने श्रीकान्त नामक एक सुन्दर पुत्ररत्न को जन्म दिया । एक दिन राजा श्रीधर्म को अपने साम्राज्य को विस्तृत करने का विचार आया । अपने सामन्तों मंत्रियों से विचार विमर्शकर विशाल सेना के साथ वह विजययात्रा के लिए निकल पड़ा। अपने बाहुबल से और विशाल सेना के सहयोग से उसने आसपास के समस्त देशों को जीत लिया और वापस राजधानी की ओर लौटा । मार्ग में एक ग्राम के बाहर एक मुनिवर ध्यान कर रहे थे। मुनि की शान्त मुद्रा और तपोतेज को देख कर वह बड़ा प्रभावित हुआ । विनयपूर्वक नमस्कार कर वह मुनि के समीप बैठ गया । ध्यान समाप्ति के पश्चात् मुनि ने शुभाशीर्वाद के साथ धर्मोपदेश दिया । मुनि का उपदेश सुनकर उसने अपार हर्ष व्यक्त करते हुए पूछा - भगवन् ! आप यौवनकाल में ही संसार का परित्याग कर साधु क्यों बने ? मैं आपके वैराग्य का कारण जानना चाहता हूं । राजा की विशेष जिज्ञासा देखकर मुनि ने अपने वैराग्य कारण सुनाते हुए कहा - राजन् ! इसी विदेह क्षेत्र में विशालपुरी नाम की नगरी है। वहां जय नाम का राजा राज्य करता है । उसकी जयश्री नाम की रानी है । राजा रानी पर अत्यन्न आसक्त था । राजा चौबीसों घण्टों महल में ही पड़ा रहता था। रानी के प्रति अत्यधिक आसक्ति और राज्य के प्रति अनासक्ति देखकर प्रजा एवं सामन्तग लगे । सामन्तों ने राजा को बहुत समझाया पर वह नहीं माना । अन्त में क्रुद्ध सामन्तों ने राजा को नगर से निकाल दिया । राजा रानी को लेकर वन में चला गया और रानी के साथ वन में आश्रम बनाकर रहने लगा । राजा जंगल के कन्दमूल खाकर अपने जीवन का निर्वाह करने लगा। रानी गर्भवती हुई । पास में ही एक सिंहगुफा थी । उस सिंह गुफा के आसपास कन्द, फल, फल आदि विशाल मात्रा में मिलते थे । राजा रानी को लेकर सिंह गुफा में पहुँचा । रानी को सिंहगुफा में छोड़कर वह कन्द, वनफल लाने के लिए बन में चला गया । उस समय सद्यप्रसूता सिंहनी अपने नवजात बच्चों को गुफा में छोड़कर शिकार के लिए चली गई थी। रानी को प्रसव पीडा हुई । उस समय सिंहनी गर्जारव करती हुई गिरि गुफा में आ रही थी। सिंहनी के गर्जारव से भयभीत रानी ने दो बालकों को जन्म दिया । उनमें एक शिशु पुत्र था तो दूसरा शिशु पुत्री । सिंहनी को आते देख रानी पुत्र को गोद में ले भाग निकली । पुत्री गुफा में ही रह गई । उसे पुत्री का ध्यान ही न रहा । उधर केरल नामका राजा शिकार के लिए वन में भटक रहा था। रानी भागने के श्रम से और भय से एक वृक्ष के नीचे सद्यप्रसूत बाल के साथ विश्रामकर रही थी। केरल नरेश की दृष्टि रानी और बालक पर पड़ी। रानी को वही छोड़कर वह बालक को घर ले आया और अपनी रानी से बोला - इस बालक को वन देवता ने हमें दिया है । अतः इसे अपना ही पुत्र मानकर पालन करो । पुत्र विहीन रानी को पुत्र देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने बालक का जन्मोत्सव किया और बालक का नाम वनराज रखा । वनराज समस्त कलाओ में कुशल हुआ। एक दिन केरल नरेश वनराज के साथ उसी वन में पहुंचा जहां उसे वनराज की प्राप्ति हुई थी । उसी वन में एक वृक्ष के नीचे एक केवलज्ञानी मुनि परिषद के बीच धर्मोपदेश सुना रहे थे। उसी परिषद में वनराज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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