Book Title: Buddh Vachan
Author(s): Mahasthavir Janatilok
Publisher: Devpriya V A

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Page 14
________________ शानी का निरोध होता है । इस प्रकार इस सारे के सारे दुख स्कन्ध का निरोध होता है । " ( पृ० ३० ) तव प्रश्न होता है कि यदि यथार्थ मे कोई दुख को भोगता है ही नही, तो फिर दुख से मुक्ति का प्रयत्न व्यर्थ ? हॉ, सचमुच यदि हमे यह यथार्थ - दृष्टि उपलब्ध हो जाए कि 'जीव- आत्मा' नाम की कोई वस्तु नही, यह केवल हमारे अहङ्कार का एक सूक्ष्म प्रतिविम्व है, अवशेप है और हो जाए हमारे इस अहकार का सर्वथा नाश, तो फिर हमे दुख से मुक्त होने का प्रयत्न करने की आवश्यकता नही । • उस अवस्था मे न दु ख रहेगा, न दुख का भोक्ता, न प्रश्न की गुजायश रहेगी न उसके उत्तर की । क्या यह जो दुख का एकान्तिक निरोध है, जिसे निर्वाण कहते है जीते जी प्राप्त किया जा सकता है ? हाँ, इसी 'छ फीट के शरीर' मे प्राप्त किया जा सकता है । "भिक्षुओ, आदमी जीते जी निर्वाण को प्राप्त करता है, जो काल से सीमित नही, जिसके बारे में कहा जा सकता है कि 'आओ और स्वय देख लो,' जो ऊपर उठाने वाला है, जिसे प्रत्येक बुद्धिमान आदमी स्वय प्रत्यक्ष कर सकता है। " भिक्षु, जब शान्तचित्त हो जाता है, जब (वन्धनो से ) विल्कुल मुक्त हो जाता है, तब उसको कुछ और करना बाकी नही रहता । जो कार्य्यं वह करता है, उसमे कोई ऐसा नही होता, जिसके लिए उसे पश्चात्ताप हो । " इस प्रकार का अर्हत्व प्राप्त भिक्षु जब शरीर छोडता है, तब उसके पाँच स्कन्धो का क्या होता है ? जिस कारण से उसका पुनर्जन्म होता, उस (तृष्ण अविद्या) के नप्ट होने के कारण उसका पुनर्जन्म नही होता | ठीक उसी तरह जिस तरह विजली का मनका ( Switch) ऊपर उठा देने से बिजली की धारा (Electiic current) रुक जाती है और वल्व बुझ जाता है, वैसे ही तृष्णा की धारा का निरोध होने से यह जो जन्मभरण रूपी दिया जलता रहता है, वह बुझ जाता है । हम विजली के उदा

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