Book Title: Buddh Vachan
Author(s): Mahasthavir Janatilok
Publisher: Devpriya V A

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Page 61
________________ ४० - इस काया मे है — केश - रोम, नख, दाँत, चमडी (= त्वक्), मास, स्नायु, हड्डी (के भीतर ) की मज्जा, वृक्क, कलेजा, यकृत, क्लोमक, तिल्ली, फुप्फुस, ऑत, पतली ऑत ( = अन्त-गुण), उदरस्थ (= वस्तुये ), पाखाना, पित्त, कफ, पीव, लोहू, पसीना, वर (= मेद), आँसू, चर्बी (= वसा), लार, नासा - मल, जोडो मे का तरल पदार्थ, और मूत्र । जैसे भिक्षुओं, दोनो ओर मुँह वाली एक बोरी हो और वह नाना प्रकार के अनाज शाली, धान ( = त्रीही), मूंग, उडद, तिल, तण्डुल, आदि से भरी हो, उसे आँख वाला आदमी खोल कर देखे - यह शाली है, यह धान है, यह मूंग है, यह उडद है, यह तिल है, यह तण्डुल है । इसी प्रकार भिक्षुओ, भिक्षु पैर के तलवे से ऊपर, केश मस्तक के नीचे, त्वचा से घिरे हुए, इस काया को नाना प्रकार की गन्दगी से पूर्ण देखता है । और फिर भिक्षुओ, भिक्षु इस काया को, ( इसकी ) स्थिति के अनुसार ( इसकी ) रचना के अनुसार देखता है । इस काया मे है - पृथ्वी - महाभूत (धातु) जल - महाभूत, अग्नि - महाभूत, वायु- महाभूत । जैसे कि भिक्षुओ चतुर गो-घातक वा गो-घातक का शागिर्द, गाय को मार कर, उसकी बोटी बोटी पृथक् पृथक् करके चौरस्ते पर बैठा हो । ऐसे ही भिक्षुओ, भिक्षु इस काया को ( इसकी ) स्थिति के अनुसार ( इसकी ) रचना के अनुसार देखता है । और फिर भिक्षुओ, भिक्षु श्मशान मे फेके हुए एक दिन के मरे, दो दिन के मरे, तीन दिन के मरे, फूले, नीले पड गये, पीव भरे, (मृत - ) शरीर को देखे । ( और उससे ) वह अपनी इसी काया का स्याल करे - यह काया भी इसी स्वभाव वाली, ऐसे ही होने वाली, इससे न वच सकने वाली है। इस प्रकार काया के भीतर कायानुपश्यी हो विहरता है । काया के वाहर कायानुपश्यी हो विहरता है । काया के अन्दर-बाहर कायानुपश्यी हो विहरता है । काया मे उत्पत्ति ( - धर्म) को देखता विहरता है । काया

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