Book Title: Buddh Vachan
Author(s): Mahasthavir Janatilok
Publisher: Devpriya V A

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Page 62
________________ - ४१ - मे विनाश (=धर्म) को देखता विहरता है। 'काया है' करके इसकी स्मृति ज्ञान और प्रति-स्मृति की प्राप्ति के अर्थ उपस्थित रहती है। वह अनाश्रित हो विहरता है। लोक मे किसी भी वस्तु को, (मै मेरा करके) ग्रहण नहीं करता। भिक्षुओ, इस प्रकार भी भिक्षु काया मे कायानुपश्यी हो विहार करता है। भिक्षुओ, जिसने कायानुस्मृति का अभ्यास किया है, उसे बढाया है, म. ११९ उस भिक्षु को दस लाभ होने चाहिये। कौन से दस? १--वह अरति-रति-सह (=उदासी के सामने डटा रहने वाला) होता है, उसे उदासी परास्त नही कर सकती, वह उत्पन्न उदासी को परास्त कर विहरता है। २--वह भय-भैरव-सह होता है। उसे भय-भैरव परास्त नही कर सकता। वह उत्पन्न भय-भैरव को परास्त कर विहरता है। ३-गीत, उप्ण, भूख-प्यास, डक मारने वाले जीव, मच्छर, हवाधूप, रेगने वाले जीवो के आघात, दुरुक्त, दुरागत वचनो, तथा दुख-दायी, तीव्र, कटु, प्रतिकूल, अरुचिकर, प्राण-हर शारीरिक पीडाओ को सह सकने वाला होता है। ४-सुखपूर्वक विहार करने के लिए उपयोगी चारो चैतसिक-ध्यानो को इसी जन्म मे विना कठिनाई के प्राप्त करता है। ५-वह अनेक प्रकार की ऋद्धियो को प्राप्त करता है। ६-वह अमानुप, विशुद्ध दिव्य-श्रोत्र से दोनो प्रकार के गब्द सुनता है। दिव्य (शब्दो) को भी, मानुप (शब्दो) को भी, दूर के शब्दो को भी, समीप के शब्दो को भी। ७-दूसरे सत्वो के, दूसरे व्यक्तियो के चित्त को चित्त से जान लेता है। ८-अनेक प्रकार के पूर्व-निवासो (= पूर्वजन्मो) को जान लेता है। ९-अमानुप, दिव्य, विशुद्ध चक्षु से मरते-उत्पन्न होते, अच्छे-बुरे, सुवर्ण-दुर्वर्ण, सुगति-प्राप्त, दुर्गति-प्राप्त सत्वो को जानता है-सत्वो के कर्मानुसार सत्वो की उत्पत्ति को जानता है।

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