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छाउन
सीखता है । काया के सस्कार को शान्त करते हुए सॉस लेना सीखता है, काया के सस्कार का शान्त करते हुए सॉस छोडना सीसता है । इस प्रकार अपनी काया मे कायानुपश्यी हो विहरता है । दूसरो की काया मे कायानुपश्यी हो विहरता है । अपनी और दूसरो की काया में कायानुपश्यी हो विहरता है । काया मे उत्पत्ति ( - धर्म) को देखता विहरता है । काया मे विनाश ( - धर्म) को देखता विहरता है । काया में उत्पत्ति-विनाश को देखता विहरता है । 'काया है', करके, इसकी रमृति, ज्ञान और प्रति स्मृति की प्राप्ति के अर्थ उपस्थित रहती है वह अनाश्रित हो विहरता है, लोक मे किसी भी वस्तु को (मै, मेरा करके) ग्रहण नही करता । भिक्षुओ, इस प्रकार भी भिक्षु काया में कायानुपश्यी हो विहार करता है ।
और फिर भिक्षुओ, भिक्षु चलता हुआ जानता है कि चल रहा हूँ, खडा हुआ जानता है कि खडा हूँ, बैठा हुआ जानता है कि बैठा हूँ, लेटा हुआ जानता है कि लेटा हूँ । जिस जिस अवस्था में उसका शरीर होता है, उस उस अवस्था में उसे जानता है । “भिक्षु समझता है कि मेरी क्रियाओ के पीछे कोई करने वाला नही, कोई आत्मा नही, क्रिया- मात्र है । व्यवहार की सुविधा के लिए हम कहते है "मैं चलता हूँ, मैं खडा हूँ" इत्यादि ।
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और फिर भिक्षुओ, भिक्षु जानते हुए आता जाता है, जानते एहु देखता भालता है, जानते हुए निकोडता फैलाता है, जानते हुए सघाटी, पात्र - चीवर को धारण करता है, जानते हुए असन, पान, खादन, आस्वादन करता है, जानते हुए पाखाना - पेशाव करता है, जानते हुए चलता, खडा रहता, वैठता, सोता, जागता, वोलता, चुप रहता है।
और फिर भिक्षुओ, भिक्षु पैर के तलवे से ऊपर, केश-मस्तक से नीचे त्वचा से घिरे हुए इस काया को नाना प्रकार की गन्दगी से पूर्ण देखता है