Book Title: Buddh Vachan
Author(s): Mahasthavir Janatilok
Publisher: Devpriya V A

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Page 79
________________ sence of mind) छोटे से छोटे और वडे से वडे प्रत्येक कार्य्यं को करते समय यह ज्ञान रहे कि मै अमुक कार्य्यं कर रहा हूँ । सम्यक् समाधि-- शुभ-कर्मों के करने में चित्त की एकाग्रता । ब्रह्मचर्य्यं = श्रेष्ठ जीवन पृ० २०. पृ० २१ दुराचरण - प्रत्येक वह कृत्य जिसका हमारे जीवन पर बुरा असर पडता है और जिसका हमे दुखमय परिणाम भोगना पडता है, दुराचरण कहलाता है । चाहे जीव-हिंसा - जान बूझ कर किसी भी प्राणी की हिंसा करना - वह किसी उद्देश्य से हो - जीव - हिसा है । मिथ्या-दृष्टि-दान-पुण्य सव व्यर्थ है, न अच्छे कर्म का अच्छा फल होता है, न बुरे, का वुरा, आदि विचार । मन के कृत्य - चेतना = मन का कर्म ही वास्तव मे कर्म है । यही शारीरिक कृत्य के रूप मे प्रगट होता है, यही वाणी के कृत्य के । शारीरिक ओर वाणी के कृत्यो के रूप में न प्रगट होने की अवस्था मे 'हम उसे मन के कृत्य ( = मनोकम्म) कहते है । पृ० २२. मोह – लोभ ओर द्वेप कभी बिना मोह = मूढता के नही होता । सम्यक् दृष्टि-- (१) लोकोत्तर सम्यक्-दृष्टि और लोकिय-सम्यक् दृष्टि, सम्यक् - दृष्टि के यह दो भेद है। इनमे से प्रथम सम्यक्दृष्टि केवल श्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी तथा अर्हत् व्यक्तियो को होती है । जिसकी मुक्ति प्राप्ति निश्चित है, उसे श्रोतापन्न, जिसे ससार मे (केवल ) एक जन्म ओर धारण करना है, उसे सकृदागामी, जिसे ओर एक भी जन्म धारण नही करना है, वह अनागामी तथा जो जीवन्मुक्त हो गया है, उसे अर्हत् कहते है । पृ० २३ पृथग्जन ——–श्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी, तथा अर्हत् – ये सब आर्य जन कहलाते है। इनके अतिरिक्त दूसरे सव आदमी पृथग्जन ।

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