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सत्य काय -दृष्टि-- काय को सत् समझने की दृष्टि | इसके दो रूप हो सकते है ( १ ) भव-दृष्टि = उच्छेद दृष्टि, यह विश्वास कि जन्म अस्तित्व है, ओर मृत्यु होने पर विभव - दृष्टि - यह विश्वास
से मृत्यु पर्य्यन्त का जीवन ही मेरा इसका उच्छेद हो जायगा ( २ )
कि शरीर से बिल्कुल स्वतन्त्र "आत्मा" नाम की सत्ता है, जो
मरने के अनन्तर भी वनी रहती है।
शील - व्रत - परामर्श -- धार्मिक क्रिया-कलाप ( व्रत आदि) को मोक्ष का पृ० २४
उपाय मानना
रहेगा - श्रीमद्भगवद्गीता की यही शिक्षा हैअच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोध्य एव च ।
यह आत्म
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नित्य सर्वगत स्थाणुरचलोsय सनातन ॥ २२४॥
यह आत्मा न काटी जा सकती है, न जलाई जा सकती है, न गलाई जा सकती है, न सुखाई जा सकती है । यह नित्य, सर्व व्यापक स्थिर अचल और सनातन है ॥२-२४ ॥
तीनो बन्धन - दस सयोजन ( = अन्धन) मनुष्य को जन्म मरण पृ० २५ के चक्र से बाँधे रहते है । वे है - ( १ सत्काय- दृष्टि, (२) विचिकित्सा, (३) शील- व्रत परामर्श, (४) काम - राग, (५) व्यापाद ( क्रोध), (६) रूप-राग (रूप लोक में उत्पत्ति की इच्छा ), (७) = अरूप लोक में उत्पत्ति की इच्छा ) ( ८ ) मान (अभिमान), (१) उद्धता ( = एकाग्रता का अभाव ), (१०) अविद्या |
अरूप राग -
धर्म - ( १ ) अस्तित्व (२) मनेन्द्रिय के विषय रात को
पृ० २६
और ही - वास्तव में पुद्गल = व्यक्ति के अस्तित्व का पृ० २६ समय बहुत ही थोडा है, केवल एक चित्त क्षण भर । ज्यो ही चित्तक्षण निरुद्ध होता है, व्यक्तित्व भी उसके साथ निरुद्ध होता है । " भविष्य का व्यक्तित्व भविष्य मे होगा, न वर्तमान में है, न अतीत